एकांत श्रीवास्तव की एक कविता
लोहा
जंग लगा लोहा पांव में चुभता है
तो मैं टिटनेस का इंजेक्शन लगवाता हूँ
लोहे से बचने के लिए नहीं
उसके जंग के संक्रमण से बचने के लिए
मैं तो बचाकर रखना चाहता हूं
उस लोहे को जो मेरे खून में है
जीने के लिए इस संसार में
रोज़ लोहा लेना पड़ता है
एक लोहा रोटी के लिए लेना पड़ता है
दूसरा इज़्ज़त के साथ
उसे खाने के लिए
एक लोहा पुरखों के बीज को
बचाने के लिए लेना पड़ता है
दूसरा उसे उगाने के लिए
मिट्टी में, हवा में, पानी में
पालक में और खून में जो लोहा है
यही सारा लोहा काम आता है एक दिन
फूल जैसी धरती को बचाने में ।
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खूब बहुत खूब….
By: Dr Anurag on जुलाई 24, 2008
at 7:06 पूर्वाह्न
वाह, क्या बात है।
हमारी नजर में इसी लोहे की महंगाई इन दिनों हमें रुला रही है, महंगाई का रक्तबीज
बनकर।
शायद लोहा पर हिन्दी में कई अच्छी कविताएं लिखी गयी हैं, उन सभी को बारी-बारी से
आप यहां पढ़ाते तो मजा आ जाता।
By: अशोक पाण्डेय on जुलाई 24, 2008
at 8:46 पूर्वाह्न
क्या सूक्ष्म बात है – हमें बचाव करना होता है लोहे से नहीं , टिटनेस से!
By: Gyandutt Pandey on जुलाई 24, 2008
at 10:03 पूर्वाह्न
बहुत उम्दा, क्या बात है!
By: समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले' on जुलाई 24, 2008
at 2:46 अपराह्न
अद्भुत
By: Rajesh Roshan on जुलाई 25, 2008
at 1:53 पूर्वाह्न
बेहतरीन प्रस्तुति.
आभार.
By: balkishan on जुलाई 25, 2008
at 10:22 पूर्वाह्न
वाह
By: अजय on जून 11, 2010
at 6:58 पूर्वाह्न
Ekant Shrivastav jee kee kavitayen hamesha samvedna se bhari hoti hain. Rang par likhee unkee kavitayen kaun bhul sakta hai. Loha padhkar achchha laga. – Hindi Sahitya, aadhunikhindisahitya.wordpress.com.
By: Hindi Sahitya on अक्टूबर 14, 2010
at 7:11 पूर्वाह्न
Ekant Jee ki kavitayen hoti hi bemisal hai. “LOHA” bhi unme se hi hai.
By: Gajanan Rathod on नवम्बर 22, 2010
at 1:03 अपराह्न