Posted by: PRIYANKAR | जुलाई 29, 2008

घर

अरुण कमल की एक कविता

 

घर

 

जो घर से निकल गया उसका इंतज़ार मत करना

कहाँ जाएगा कहाँ ले जाएगी हवा उसे

कहाँ किस खंदक किस पुल के पाये में

मिलेगी लाश उसकी

तुम पहचान भी सकोगे या नहीं

या एक ही निशान होगा जांघ का वो तिल तुम्हारे वास्ते

 
ऊपर उठा जो गुब्बारा

किसने देखा क्या हुआ उसका

जब तक मिलेंगे पाँव के निशान

वह किसी तट पर डूब चुका होगा

 
बन्द कर लो द्वार

मत पुकारो

लौट जाओ अपने घर

वह हवा की तरह दुष्प्राप्य है

 
यह दुनिया माँ का गर्भ नहीं

जो एक बार घर से निकला

उसका फिर कोई घर नहीं ।

 

****


Responses

  1. हर मन की पीड़ा के शब्द हैं ये.
    कवि ने आज का हालात का सही शब्द चित्रण किया है.
    आपको भी साधू वाद.

  2. bhut marmsparshi rachana hai. badhai ho.

  3. सही है जी, पांव ठोक कर जड़ों को जमाये रखें। पत्तियां झरें तो उसी जमीन पर जो खाद बन उन्हीं जड़ों को परिपुष्ट करें।
    कुछ लोग असहमत हो सकते हैं!!

  4. भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

  5. बहुत सुंदर ….मन को अंदर तक छू गयी कविता…प्रियंकर जी आपका काम सराहनीय है…धन्यवाद


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