अरुण कमल की एक कविता
घर
जो घर से निकल गया उसका इंतज़ार मत करना
कहाँ जाएगा कहाँ ले जाएगी हवा उसे
कहाँ किस खंदक किस पुल के पाये में
मिलेगी लाश उसकी
तुम पहचान भी सकोगे या नहीं
या एक ही निशान होगा जांघ का वो तिल तुम्हारे वास्ते
ऊपर उठा जो गुब्बारा
किसने देखा क्या हुआ उसका
जब तक मिलेंगे पाँव के निशान
वह किसी तट पर डूब चुका होगा
बन्द कर लो द्वार
मत पुकारो
लौट जाओ अपने घर
वह हवा की तरह दुष्प्राप्य है
यह दुनिया माँ का गर्भ नहीं
जो एक बार घर से निकला
उसका फिर कोई घर नहीं ।
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हर मन की पीड़ा के शब्द हैं ये.
कवि ने आज का हालात का सही शब्द चित्रण किया है.
आपको भी साधू वाद.
By: balkishan on जुलाई 29, 2008
at 7:39 पूर्वाह्न
bhut marmsparshi rachana hai. badhai ho.
By: Advocate Rashmi saurana on जुलाई 29, 2008
at 8:01 पूर्वाह्न
सही है जी, पांव ठोक कर जड़ों को जमाये रखें। पत्तियां झरें तो उसी जमीन पर जो खाद बन उन्हीं जड़ों को परिपुष्ट करें।
कुछ लोग असहमत हो सकते हैं!!
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 29, 2008
at 2:01 अपराह्न
भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
By: समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले' on जुलाई 29, 2008
at 3:04 अपराह्न
बहुत सुंदर ….मन को अंदर तक छू गयी कविता…प्रियंकर जी आपका काम सराहनीय है…धन्यवाद
By: reetesh gupta on जुलाई 30, 2008
at 4:14 अपराह्न