अशोक वाजपेयी की एक कविता
पूर्वजों की अस्थियों में
हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं —
हम उठाते हैं एक शब्द
और किसी पिछली शताब्दी का वाक्य-विन्यास
विचलित होता है
हम खोलते हैं द्वार
और आवाज़ गूँजती है एक प्राचीन घर में कहीं —
हम वनस्पतियों की अभेद्य छाँह में रहते हैं
कीड़ों की तरह
हम अपने बच्चों को
छोड़ जाते हैं पूर्वजों के पास
काम पर जाने के पहले
हम उठाते हैं टोकनियों पर
बोझ और समय
हम रूखी-सूखी खा और ठंडा पानी पीकर
चल पड़ते हैं
अनंत की राह पर
और धीरे-धीरे दृश्य में
ओझल हो जाते हैं
कि कोई देखे तो कह नहीं पायेगा
कि अभी कुछ देर पहले
हम थे
हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं —
पूर्वजों को याद करते हुए एक नेपाली कवि मनु मञ्जिल की कविता ‘पुरखों के प्रति’ पढ़ी थी। ऐसे ही भाव थे। दोनों कविताएँ सच का आईना हैं।
प्रियंकर जी,
आपका धन्यवाद करता चलूँ॰॰॰
By: Shailesh Bharatwasi on जुलाई 30, 2008
at 7:19 पूर्वाह्न
bahut achchi aur bhavpurn kavita hai
By: vipinjain on जुलाई 30, 2008
at 7:48 पूर्वाह्न
बेहतरीन और उम्दा कविता प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.
पढ़ कर खुशी हुई.
By: balkishan on जुलाई 30, 2008
at 9:34 पूर्वाह्न
ओह, इस कविता के परिप्रेक्ष्य में मै गिरेबान में झांकता हूं तो पाता हूं कि मैं पूर्वज ही हूं। उसके अलावा जो हूं, सो छलावा हूं – फ्राड या छद्म!
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 30, 2008
at 1:53 अपराह्न
पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
By: समीर लाल 'उड़न तश्तरी वाले' on जुलाई 30, 2008
at 2:57 अपराह्न
पुरखों के प्रति…
मनु मन्जिल
मैं पुरखों के बनाए छत से बरसात को रोकता हूँ
पुरखों के बनाए दीवारों से आँधी को रोकता हूँ
मेरे पास एक घर है जो मेरा बनाया नहीं है
एक ऐश्वर्य है जो मेरा कमाया नहीं है।
मैं उन्हीं की खिड़की से इन्द्रधनुष देखता हूँ
उन्हीं के बरामदे से बादलों के मेले निहारता हूँ
सबेरे जागकर
सुनहरे हिम के चादर से ढँके शिखर देखता हूँ
शाम को तारों का सम्मेलन देखता हूँ
रात को कमरे में ही उतर आते हैं रंगीन सपने
अपने से लगनेवाले उन प्रिय सपनों को देखता हूँ।
हवा को मालूम है मेरा पता
वन के पक्षियों को मालूम है
सूरज को भी मालूम है
प्रेम से पोता गया मेरा आँगन कहाँ है,
मुझे मालूम होने से पहले
दूर से आते बुज़ुर्ग डाकिये को मालूम है मेरा पता
मेरा पता जो मैंने कभी नहीं बताया
मेरा परिचय जो मैंने कभी नहीं बनाया
अपरिचित बहुतों को पता है।
मेरे पास एक बाग़ भी है जो मैंने कभी नहीं लगाया
एक सब्जी का खेत भी है जिसमें मैंने कभी फावड़ा नहीं चलाया
मेरे पुरखों के द्वारा सृजित रंग ही है
जो तुम मेरे बग़ीचे में खेलकर निकलते हुए किरणों में देखते हो
मेरे पुरखों द्वारा जलाए गए दीये का उजाला ही है
जो तुम मेरे घर-आँगन में बिखरे देखते हो
उन्हीं के लय, उन्हीं की ध्वनि, उन्हीं के बोल
तुम मेरी कविताओं में सुनते हो
और मेरे पुरखों द्वारा बनाया गया देश ही है
जहाँ की यात्रा में तुम
बुद्ध और हिमाल के पास खड़े होते हो।
नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी।
By: Sadharan Singh on जुलाई 31, 2008
at 12:46 अपराह्न
Pata naheen ye hindi bhaashee ya premi, bina soche samjhe bewajah a’adatan ‘wah wah’ aur ‘bahut sunder’ kehne se kab baaz aayenge…! Agar hindi kavita ke naam par ye parosa jaa rahaa hai, to nishchit hi hindi bhaashaa apne dushmanon ke haath mein hai. Kucch to dimagh ki khidkiyaan khol kar baahar bhi dekhiye. Hindustani zaban bahut kuchh taraashane ko taiyyar baithi hai.
By: Harsha on जुलाई 31, 2008
at 5:19 अपराह्न