अनामिका की एक कविता
मौसियां
वे बारिश में धूप की तरह आती हैं —
थोड़े समय के लिए और अचानक
हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
और सधोर की साड़ी लेकर
वे आती हैं झूला झुलाने
पहली मितली की ख़बर पाकर
और गर्भ सहलाकर
लेती हैं अन्तरिम रपट
गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की
झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
कर देती हैं चोटी-पाटी
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
किस धुन में रहती है
कि बालों की गाँठें भी तुझसे
ठीक से निकलती नहीं
बालों के बहाने
वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
और फिर हँसती-हँसाती
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं ––
चटनी-अचार-मूंगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे ––
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
ध्यान भी नहीं जाता औरों का
आँखों के नीचे धीरे-धीरे
जिसके पसर जाते हैं साये
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप ––
ख़ून के आँसू-से
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
काले-कत्थई चकत्तों का
मौसियों के वैद्यक में
एक ही इलाज है ––
हँसी और कालीपूजा
और पूरे मोहल्ले की अम्मागीरी
बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
जीवन की कुछ ज़रूरी चीजें ––
जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
अम्मागीरी मग्न सारे भुवन की।
****
सच में कहां गयीं ये!
मेरी बुआ भी बहुत दिन से नहीं आयी – गुड़ का लड्डू और गुरम्मे का अचार ले कर। नयी शताब्दी उनके लिये ऊंचा सुनना और मोतियाबिन्द ले कर आयी है।
By: Gyan Dutt Pandey on अगस्त 4, 2008
at 10:59 पूर्वाह्न
क्या कहूँ सब कुछ बस यादों के साये की तरह है बस! बढ़िया कविता!
By: विनय प्रजापति on अगस्त 4, 2008
at 4:45 अपराह्न
अभी गला रूंधा पड़ा है यार।
By: रवींद्र व्यास on अगस्त 5, 2008
at 1:14 अपराह्न
प्रियंकर जी,बहुत दिनों बाद आपके ब्लाग पर आना हुआ पर आज बहुत सारी अच्छी कविता पढ़ने को मिली। अनामिका की कविता मौसियाँ बहुत अच्छी लगी,उनकी और कविताएँ कहाँ पढ़ने को मिलेंगी,आभार सहित,
रजनी भार्गव
By: रजनी भार्गव on अगस्त 6, 2008
at 2:06 अपराह्न
Achchi kavita.Badhai.Mausiyaan jab tak bachi rahengi tab tak smritiyon ko bhi
ve jinda rakhengi.
By: raag telang on मार्च 25, 2009
at 11:41 पूर्वाह्न
anamika ji bahut yatharth parak , bahut umda likhati hain
By: dr.deepti bharadwaj on सितम्बर 9, 2009
at 4:14 पूर्वाह्न