( 1911-1987 )
अज्ञेय की एक कविता
हंसती रहने देना
जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को
हँसती रहने देना !
हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे
पर आँखों ने
हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
अंधकार भी देखा तो
सच-सच देखा
इस पार
उन्हें जब आवे दिन
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन !
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हो तो अपलक ऐसा ही हो – साभार
By: manish on अगस्त 8, 2008
at 2:37 अपराह्न
pahali baar is blog par laga ki ek kavita padhi.
By: Harsha on अगस्त 8, 2008
at 4:19 अपराह्न
ओह ! बहुत आभार आप का.
By: MEET on अगस्त 8, 2008
at 4:34 अपराह्न
जीवन की सहज वीणा से झंकृत एक मार्मिक कविता। अच्छे चयन के लिए बधाई।
By: रवींद्र व्यास on अगस्त 9, 2008
at 9:15 पूर्वाह्न
सच है जी! हम रहें न रहें हमारी आंखें रहे! ठीक ठाक और सच को सच देखने वाली।
By: Gyan Dutt Pandey on अगस्त 10, 2008
at 6:32 पूर्वाह्न
कितनी सच्ची बात।
शुक्रिया।
By: Sanjeet Tripathi on अगस्त 19, 2008
at 7:26 पूर्वाह्न