Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 8, 2008

हंसती रहने देना

( 1911-1987 )

अज्ञेय की एक कविता

 

हंसती रहने देना

 

जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को
हँसती रहने देना !

 
हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे

 
पर आँखों ने
हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
अंधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

 
इस पार
उन्हें जब आवे दिन
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन !

 

*****


Responses

  1. हो तो अपलक ऐसा ही हो – साभार

  2. pahali baar is blog par laga ki ek kavita padhi.

  3. ओह ! बहुत आभार आप का.

  4. जीवन की सहज वीणा से झंकृत एक मार्मिक कविता। अच्छे चयन के लिए बधाई।

  5. सच है जी! हम रहें न रहें हमारी आंखें रहे! ठीक ठाक और सच को सच देखने वाली।

  6. कितनी सच्ची बात।
    शुक्रिया।


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