रमेशचंद्र शाह की एक कविता
प्रवास
छूट गया पीछे वह सब कुछ
बांधे था जो अभी-अभी तक
टूट रही हर क्षितिज-अर्गला
कांधे अपने पहुंच सभी तक
एक दौड़ती खिड़की के बल
फांद रहा यह मन उतना ही
मैं प्रवास में हूं– यह खुद को
समझाता हूं मैं जितना ही
पंख पंख हैं, पांव पांव हैं
उड़-उड़ आते नगर-गांव हैं
“आशा की माधुरी अवधि”…
गंतव्य सरीखे सभी ठांव हैं
लौटूंगा जब इसी वक्त कल
इसी रास्ते…. जैसा है तय
आगे जो भी है, अभी– वही सब
पीछे ही पीछे होगा लय ।
*****
( समकालीन सृजन के अंक ‘यात्राओं का ज़िक्र’ से साभार )
लौटूंगा जब इसी वक्त कल
इसी रास्ते…. जैसा है तय
आगे जो भी है, अभी– वही सब
पीछे ही पीछे होगा लय ।
बहुत सुन्दर कविता। बधाई स्वीकारें।
By: ritu bansal on अगस्त 11, 2008
at 11:33 पूर्वाह्न
लौटूंगा जब इसी वक्त कल
इसी रास्ते…. जैसा है तय
आगे जो भी है, अभी– वही सब
पीछे ही पीछे होगा लय ।
शुक्रिया इस खूबसूरत कविता को यहाँ बांटने के लिये……
By: Dr Anurag on अगस्त 11, 2008
at 2:53 अपराह्न
सुन्दर कविता…
By: sameerlal on अगस्त 11, 2008
at 4:59 अपराह्न
शुक्रिया. इस खूबसूरत कविता को यहाँ बांटने के लिये.
By: balkishan on अगस्त 12, 2008
at 1:42 पूर्वाह्न