( युवा कवि नरेश अग्रवाल के अब तक चार काव्य-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं . इन काव्य संकलनों को विजेन्द्र, अरुण कमल और विजयकुमार जैसे कवि-समीक्षकों की सराहना प्राप्त हुई है . आप उनकी वेब साइट www.nareshagarwala.com पर जा कर उनके ये काव्य-संकलन तो पढ ही सकते हैं, प्रेरक और उपयोगी विषयों पर लिखी उनकी अन्य पुस्तकें भी देख सकते हैं . विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न नरेश जमशेदपुर में रहते हैं . )
जो मिला है मुझे
उपदेश कभी खत्म नहीं होंगे
वे दीवारों से जड़े हुए
मुझे हमेशा निहारते रहेंगे
जब मुझमें अपने को बदलने की जरूरत थी
उस वक्त उन्हें मैं पढ़ता चला गया
बाकी समय बाकी चीजों के पीछे भागता रहा
अत्यधिक प्रयत्न करने के बाद भी
थकता नहीं हूं
कुछ न कुछ हासिल करने की चाह
जो मिला है मुझे
जिससे सम्मानित महसूस करता हूं
गिरा देता हूं सारी चीजों को एक दिन
अपने दर्पण में फिर से अपनी शक्ल देखता हूं
बस इतना काफी नहीं है
इन बिखरी चीजों को भी सजा कर रखना है
वे सुन्दर-सुन्दर किताबें
वे यश की प्राप्ति के प्रतीक
कल सभी के लिए होंगे
और मैं अकेला नहीं हूं कभी भी ।
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अपने दर्पण में फिर से अपनी शक्ल देखता हूं
देखते रहना चाहिए….आप क्या हैं यह आपसे अच्छा और कोई नही जान सकता
By: Rajesh Roshan on अगस्त 21, 2008
at 12:03 अपराह्न
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
By: sameerlal on अगस्त 21, 2008
at 6:56 अपराह्न
हिन्दी कविता की दशा खराब करने वालों की संख्या में मुझे लगता है अभी काफी कमी रह गयी है शायद इसी लिये हर रोज नयी कविता के नये-नये कवियों का नये-नये ठंग से उत्पादन जारी है। दर असल मै तो आज तक यह नहीं समझ पाया कि गद्य की तरह बेमेल लिखी जाने वाली इस इबारत को कोई कविता कह भी कैसे सकता है। और अगर कोई इसे कविता कहता भी है तो बाकी के तथाकथित समझदार लोग इसे कविता मान कैसे सकते हैं। मेरी तो यही सलाह है कि अगर लिखना ही है तो सही मायने में जिसे कविता कहा जा सके वैसा ही गेय और छन्द वद्ध पद्य लिखिये वरना गद्य लिखने का प्रयास करने चाहिये शायद वह इस नयी कविता से ज्यादा प्रभावी ढंग से लिखा जा सकता है और सुप्रभाव भी डाल सकता है। मेरी समझ में आदमी से जो काम न हो सके उसे वह नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से काम भी बिगड़ता है और परंपराएँ भी भ्रष्ट होती हैं। हिन्दी की दशा दिशा सुधारने के लिये यह आवश्यक है कि खुद को कवि कहलाने के शौकीनों को अब गद्य लेखन में प्रयास करना चाहिये।
By: shailydubey on मई 8, 2009
at 1:16 अपराह्न
@ शैली दुबे : आपके कथन में थोड़ी-बहुत सच्चाई ज़ुरूर है . पर यकीन मानिए थोड़ी-बहुत ही है . यदि आपकी शिक्षा-दीक्षा और कविता से आपके सम्बंध का थोड़ा-बहुत जायज़ा होता तो आपसे इस पर एक लंबी बात-चीत शुरू करता .
कविता छंद में हो या मुक्त छंद में या छंदहीन इस पर बहुत बात-चीत हो चुकी है . कविता के नाम पर निरा लद्दड़ गद्य ठेलने पर भी . यह मैं भी मानता हूं कि छंद कविता की आयु होता है . पर वह कविता को ढंकता-बांधता भी है . और सिर्फ़ गेयता से या तुकबंदी से भी कविता नहीं बनती,पद्य बनता हो तो बनता हो . सलीकेदार कवि मुक्त छंद की कविता में भी भाषा के आंतरिक छंद का जादू जगा सकता है और उसकी आंतरिक लय से आपको कविता का मुरीद बना सकता है .
चलिए चलते-चलाते एक शै’र गौर फ़रमाइए और देखिए कि यह क्या कहना चाहता है :
हमने तो ये सोचा था कुछ शै’र सुनाओगे
तुम गाने लगे गाना लाहौल वला कूवत ।
By: प्रियंकर on मई 8, 2009
at 2:02 अपराह्न