राजेन्द्र राजन की एक कविता
पश्चाताप
महान होने के लिए
जितनी ज्यादा सीढ़ियाँ मैंने चढ़ीं
उतनी ही ज्यादा क्रूरताएं मैंने कीं
ज्ञानी होने के लिए
जितनी ज्यादा पोथियां मैंने पढ़ीं
उतनी ही ज्यादा मूर्खताएं मैंने कीं
बहादुर होने के लिए
जितनी ज्यादा लड़ाइयां मैंने लड़ीं
उतनी ही ज्यादा कायरताएं मैंने कीं
ओह ! यह मैंने क्या किया
मुझे तो सीधे रास्ते जाना था ।
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शुक्रिया . इस बार राजन से मिले?
By: अफ़लातून on अप्रैल 23, 2009
at 10:36 पूर्वाह्न
आप महान हो सर जी ….. स्वीकारोक्ति दिखाई…….बहुत ही अच्छी कविता..
By: sandhya arya on अप्रैल 23, 2009
at 10:51 पूर्वाह्न
bahuta achchhi rachana hai.
By: Isht Deo Sankrityaayan on अप्रैल 23, 2009
at 11:23 पूर्वाह्न
बस इतना ही कह सकता हूँ ….ख्याल ओर भाषा का फर्क होता है …यही अहसास जावेद साहब ने अपनी एक नज़्म में दिया है…..ओर कई शेरो में…..
By: Dr Anurag on अप्रैल 23, 2009
at 1:40 अपराह्न
मार्मिक।
By: ravindra vyas on अप्रैल 23, 2009
at 2:18 अपराह्न
सुंदर कविता है। पढवाने के लिए आभार।
By: विजय गौं on अप्रैल 23, 2009
at 5:49 अपराह्न
वाह !!!! बहुत सुंदर …धन्यवाद
रीतेश गुप्ता
By: reetesh gupta on अप्रैल 23, 2009
at 10:22 अपराह्न
कामयाब रचना!
कोटा आ कर चले गए, हमारा दुर्भाग्य कि हम उस दिन बाहर थे।
By: दिनेशराय द्विवेदी on अप्रैल 24, 2009
at 2:49 पूर्वाह्न
acchhi kavita!
By: parul on अप्रैल 24, 2009
at 6:08 पूर्वाह्न
यह तो जबरदस्त है! हमें तो आधे रास्ते करेक्टिव एक्शन को प्रेरित कर रही है यह कविता।
पर प्रियंकर जी, महान और ज्ञानी होने का बहुत मन है। एक जन्म और लेना पड़ेगा उसके लिये।
By: Gyan Dutt Pandey on अप्रैल 25, 2009
at 10:56 पूर्वाह्न