(1927-1983)
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक कविता
तुम्हारे साथ रहकर
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं
हर रास्ता छोटा हो गया है
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर ।
हर चीज़ का आकार घट गया है
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ
आकाश छाती से टकराता है
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है
यहाँ तक की घास के हिलने का भी
हवा का खिड़की से आने का
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है ।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है
भुजाएँ अगर छोटी हैं
तो सागर भी सिमटा हुआ है
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है ।
*****
Waah !! Adbhud !!
By: रंजना. on मई 25, 2009
at 10:01 पूर्वाह्न
इस रचना के लिए बहुत आभार। आप हमेशा चुनिंदा रचनाएँ लाते हैं।
By: दिनेशराय द्विवेदी on मई 25, 2009
at 10:59 पूर्वाह्न
utkrishta rachna!
By: sandhya arya on मई 25, 2009
at 11:02 पूर्वाह्न
सर्वेश्वर जी की यह मेरी पसन्द की कविता…
बहुत दिनों बाद भी वही आनंद आया…..धन्यवाद..
By: ravikumarswarnkar on मई 25, 2009
at 12:24 अपराह्न
बहुत आशावाद का संचार करती है यह मुझमें। और उसकी जरूरत भी बहुत है!
By: Gyandutt Pandey on मई 25, 2009
at 2:25 अपराह्न
my fevrouite poem…
By: shefali pande on मई 26, 2009
at 3:05 पूर्वाह्न
sarveshvar ke prati mera shurauaati aakarshan banane wali pyari kavita. yun to is kavi mein kai rang hain
By: dhiresh on मई 26, 2009
at 2:12 अपराह्न
bahut achcha, dhanyawaad!
By: varun on मई 10, 2011
at 3:53 पूर्वाह्न