प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे ।
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गांठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खायेगा ।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा ।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ ।
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Bahut bahut sundar sachchi sarthak prarthna…
By: रंजना. on जून 3, 2009
at 1:53 अपराह्न
aisee abhiwyakti bahhut mushkil se padhane ko milataa hai ……bahut bahut badhaee
By: om arya on जून 3, 2009
at 2:32 अपराह्न
एक दम यथार्थ अनुभूति व्यक्त कर रही है यह कविता।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जून 3, 2009
at 2:36 अपराह्न
ati sunder.hriday ko sparsh karney wale bhaav.
Dhanyavaad.
By: abha iyengar on जून 5, 2009
at 11:20 पूर्वाह्न
अच्छी प्रस्तुति
बधाई
By: ashok on जून 5, 2009
at 12:11 अपराह्न