(1861-1941)
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का एक गीत
(बांग्ला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल)
मरण आएगा जिस दिन द्वार
मरण आएगा जिस दिन द्वार
उसे तुम दोगे क्या उपहार ।
रखूंगा उसके सम्मुख आन
कि, छलछल करते अपने प्राण
विदा में दूंगा उस पर वार —
मरण आएगा जिस दिन द्वार !
शरत अनगिन वसंत दिन-रात
कई संध्याएं, कई प्रभात
भरे जीवन-घट में रस कई
फूल-फल कितने ही तो फले
दुःख-सुख की छाया में पले
हृदय में, मेरे वे आ मिले ।
सभी जो मेरा संचित धन
दिनों के सारे आयोजन —
सजा दूंगा उसके सम्मुख
अरे ये अपने सब उपहार !
मरण आएगा जिस दिन द्वार !
*****
( गीतांजलि से )
अनुवाद बहुत सुंदर है।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जून 4, 2009
at 12:43 अपराह्न
बहुत सुंदर.
By: anuraag sharma on जून 4, 2009
at 3:04 अपराह्न
bahut sundar
By: sandhya arya on जून 4, 2009
at 3:28 अपराह्न
बहुत सुंदर्।
आज ही मैं माँ से यह कह रही थी कि हम मृत्यु पर दुखी इसलिए होते हैं क्योंकि हम स्वार्थी हैं। जो गया उसके लिए तो मुक्ति पर्व मनाना चाहिए। हम केवल अपने दुख में दुखी हो जाते हैं।
घुघूती बासूती
By: ghughutibasuti on जून 4, 2009
at 6:48 अपराह्न
अनहद नाद सुन पा रहा हूँ
By: बोधिसत्व on जून 4, 2009
at 11:04 अपराह्न
khubsoorat rachnaa
By: omji.arya@gmail.com on जून 5, 2009
at 9:21 पूर्वाह्न