
Manik Bachhawat
मानिक बच्छावत की एक कविता
गर्जन-तर्जन
बहुत जोर से
बोले थे तुम
गरजे थे तुम
बरसे थे तुम
फिर तुम रुके
तुमने देखा
जहां तुम खड़े थे
वहीं तुम खड़े थे
कहीं कुछ नहीं हुआ
तुम्हारी बातों ने
किसी को नहीं छुआ ।
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(काव्य संकलन ’पीड़ित चेहरों का मर्म’ से साभार)
कमाल की कविता। मौजूँ भी है।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जून 5, 2009
at 3:51 अपराह्न
कहीं कुछ नहीं हुआ
तुम्हारी बातों ने
किसी को नहीं छुआ ।
अब संवेदनाएं जाती रहीं। आदमी घिर गया है…।
By: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी on जून 6, 2009
at 2:35 पूर्वाह्न
bilkul sahi hai aisa hota hai
By: omji arya on जून 12, 2009
at 1:54 पूर्वाह्न