माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत पार्थिवं रजः ।
मधु द्यौरस्तु नः पिता
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान्नस्तु सूर्यः ।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः )
— ऋक संहिता : १/९०/६-७-८
हम सबका
जीवन मधुमय हो
सारी नदियां मधु बिखराएं हवा चले मधुवन्ती
दिशा-दिशा मधु रस बरसाए
ओषधि हो मधुवन्ती
हम सब का
यौवन मधुमय हो
मधुमय हो प्रत्यूष हमारा रातें हों मधुवन्ती
अन्तरिक्ष मधुमान मधुर हो
धरती मां मधुवन्ती
व्योम-पिता का
मन मधुमय हो
मधुमय सरस वनस्पति भी हो और सूर्य मधुवर्षी
मधुमय हो गोयूथ मुखर हों
किरणें नवरसवर्षी
हम सब का
आंगन मधुमय हो ।
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( संग्रह श्रुति सुगंध से साभार )
बहुत अच्छा लगा यह प्रयास
दीपक भारतदीप
By: Deepak Bharatdeep on जून 23, 2009
at 4:22 अपराह्न
प्रिय दीपक,
छविनाथ जी स्थापित और वरिष्ठ गीतकार हैं . प्रयास वह है जो आप नेट पर कर रहे हैं .
By: प्रियंकर on जून 23, 2009
at 5:04 अपराह्न
सुँदर प्रयास
क्या इसका ओडीयो लिन्क भी है ?
– लावण्या
By: - लावण्या on जून 23, 2009
at 8:20 अपराह्न
बहुत सुन्दर रचना, धन्यवाद!
By: Smart Indian on जून 23, 2009
at 9:04 अपराह्न
कल ही मैं वरुण पर वैदिक साहित्य से कुछ खंगालने का यत्न कर रहा था। आज आपकी यह प्रस्तुति देखी।
मानसून आने में देर हो रही है। हाथ ऊपर उठा ऋग्वैदिक ऋषि क्या कहता है – छविनाथ मिश्र जी या किसी अन्य के शब्दों में प्रस्तुत कीजिये प्रियंकर जी।
By: Gyan Dutt Pandey on जून 23, 2009
at 11:06 अपराह्न