Posted by: PRIYANKAR | जुलाई 2, 2009

कृतज्ञ हूं मैं ….

प्रियंकर की एक कविता

 

कृतज्ञ हूं मैं

कृतज्ञ हूं मैं
जैसे आसमान की कृतज्ञ है पृथ्वी
जैसे पृथ्वी का कृतज्ञ है किसान

कृतज्ञ हूं मैं
जैसे सागर का कृतज्ञ है बादल
जैसे नए जीवन के लिए
बादल का आभारी है नन्हा बिरवा

कृतज्ञ हूं मैं
जिस तरह कृतज्ञ होता है अपने में डूबा ध्रुपदिया
सात सुरों के प्रति
जैसे सात सुर कृतज्ञ हैं
सात हज़ार वर्षों की काल-यात्रा के

कृतज्ञ हूं मैं
जैसे  सभ्यताएं कृतज्ञ हैं नदी के प्रति
जैसे मनुष्य कृतज्ञ है अपनी उस रचना के प्रति
जिसे उसने ईश्वर नाम दिया है .

****

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Responses

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति! इसी बहाने लिखना शुरू हुआ और यह दिखाने का प्रयास भी कि रचनात्मक रहने का वायदा महज झांसेबाजी नहीं है।

  2. प्रियंकर जी, बहुत सुंदर कविता है।

  3. मैं भी कृतज्ञ हूँ कि कुछ तो मिला पढ़ने को प्रियंकर जी की कलम का लिखा।
    यह पंक्ति ‘जैसे मनुष्य कृतज्ञ है अपनी उस रचना के प्रति’ बहुत कुछ कह जाती है।

  4. कृतज्ञता तो एकांत का नहीं सामाजिकता का गुण है।

    बहुत सुन्दर लिखा। कलम उधार देने की डिमाण्ड दोहराने लायक!

  5. वाह! अद्‌भुत कविता। मुझे तो सोचने पर मजबूर कर दिया जी। लीजिए अब झेलिए…

    कृतज्ञता का भाव
    रखने और बताने के कायदे
    अलग-अलग हैं।
    माँ से उसका शिशु
    नही बताता कि वो कृतज्ञ है।
    गुरू से शिष्य भी नहीं बताता।
    नही बताती भौंरों को वो कलियाँ
    और
    हवाओं को भी नहीं बताती सुगन्ध
    कि वो अपने अस्तित्व के लिए
    उनकी कृतज्ञ है
    लेकिन जानते सभी हैं
    शायद बता देना ठीक नहीं होता
    या कि वजन कम कर देता।

  6. बहुत समय बाद आपको पढ़ने का मका मिला.कृतज्ञ हूं मैं…वाकई!!

  7. बहुत सुंदर!

  8. आज के समय में यह शब्द भी बेमानी होने लगा है ! शुभकामनायें !


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