आलोक श्रीवास्तव की एक कविता-2
एक भाषा का विषाद काल
मैंने नाविक से कहा
’ले चल मुझे भुलावा देकर’
युग से कहा
’ओ मेरे युग,
ले चल मुझे अपने साथ’
काल से कहा
’तुझमें अपराजित मैं वास करूं’
एक पराजित भाषा की
संकरी होती ज़मीन पर खड़े
मैंने दुख को ललकारा
एक विरासत गिरती जाती थी
खंडहर होकर चारों ओर
एक मजमा जुटा था
कुछ कलावंतों का
सब खुश थे अपने में ही
जो दुखी थे
उनके दुख का कारण
उनसे शुरू होकर
उन तक ही खत्म होता था
और ठीक वहीं से
शुरू होता था एक बाज़ार
यह एक कौम के विषाद की गोधूलि थी
जिसमें एक हारी हुई भाषा के
कुछ गदगद कुछ दुखी
लेखक कवि कलावंत
जनपद से लेकर राजधानी तक
करते थे सत्ता से
बारीक संलाप ।
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(काव्य संकलन ’यह धरती हमारा ही घर है’ से साभार )
कविता जंगल के सन्नाटे से यात्रा प्रारम्भ करती है, बाजार के गलियारे से गुजरती सत्ता के शीर्ष तलक जाती है!
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on जुलाई 16, 2009
at 9:53 पूर्वाह्न
कितना सही कहा……
By: रंजना. on जुलाई 16, 2009
at 10:34 पूर्वाह्न
प्रियंकर जी:
अच्छी कविता है । क्या यह ’आमीन’ पुस्तक के लेखक और गज़ल लिखने वाले आलोक श्रीवास्तव हैं या कोई और ?
अनूप
By: अनूप भार्गव on जुलाई 22, 2009
at 9:56 अपराह्न