अरुण कमल की एक कविता
उम्मीद
आज तक मैं यह समझ नहीं पाया
कि हर साल बाढ़ में पड़ने के बाद भी
लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते ?
समुद्र में आता है तूफान
तटवर्ती सारी बस्तियों को पोंछता
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- वापस लौट जाता है
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और दूसरे ही दिन तट पर फिर
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- बस जाते हैं गाँव —
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क्यों नहीं चले जाते ये लोग कहीं और ?
हर साल पड़ता है मुआर
हरियरी की खोज में चलते हुए गौवों के खुर
धरती की फाँट में फँस-फँस जाते हैं
फिर भी कौन इंतजार में आदमी
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- बैठा रहता है द्वार पर ?
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कल भी आयेगी बाढ़
कल भी आयेगा तूफान
कल भी पड़ेगा अकाल
आज तक मैं समझ नहीं पाया
कि जब वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं होता
झड़ चुके होते हैं सारे पत्ते
तो सूर्य डूबते-डूबते
बहुत दूर से चीत्कार करता
पंख पटकता
लौटता है पक्षियों का एक दल
उसी ठूँठ वृक्ष के घोंसलों में
क्यों ? आज तक मैं समझ नहीं पाया ।
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yah prakritik ka rahasya hai…..yah mujhe bhi samajh me aata………sundar abhiwyakti
By: om arya on जुलाई 26, 2009
at 3:10 अपराह्न
बहुत सुन्दर सटीक रचना. बधाई.
By: mahendra mishra on जुलाई 26, 2009
at 4:04 अपराह्न
shayad apne basere se lagav aur apnapan ke karan…
By: archana on जुलाई 26, 2009
at 4:04 अपराह्न
आभार इस उम्दा रचना को पढ़वाने का.
By: समीर लाल on जुलाई 27, 2009
at 12:54 पूर्वाह्न
फिल्म का गीत याद आ रहा है – कितना सुख है बन्धन में।
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on जुलाई 27, 2009
at 12:02 अपराह्न
sundar!
By: varun on अगस्त 4, 2009
at 6:23 अपराह्न