हरीश भादाणी (1933-2009)
हरीश भादाणी गीत के बुनकर थे और कलम के हलवाहे . वे हरफ़ों के फूल खिलाने वाले और हरफ़ों का पुल बनाने वाले जनगीतकार थे . जो काम बिज्जी ने अपने गद्य में किया,वही हरीश भादाणी ने अपनी कविताओं और गीतों में किया — हिंदी को राजस्थानी की सुवास से महकाने का . अपने जनगीतों को प्रस्तुत करने की हरीश जी की अपनी विशिष्ट और सम्मोहक शैली थी . जिसने भी उनके मुंह से ‘रोटी नाम सत है, खाए से मुगत है, थाली में परोस ले, हां थाली में परोस ले, दाताजी के हाथ मरोड़ कर परोस ले ’ , ’ रेत है रेत बिफर जाएगी’ तथा ’मन रेत में नहाया है’ जैसे गीत सुने हैं वह निश्चय ही एक अनुपम अनुभव से गुजरा है. पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में जयपुर से लेकर कोलकाता तक उनसे हुई कई मुलाकातों की आत्मीय यादें हैं . 1997 में उन्होंने हमारे संस्थान में आकर अपने अनूठे काव्यपाठ से सबको सम्मोहित-सा कर लिया था . अब उनका ’मन सुगना’ अपने अक्षरों के माध्यम से बोलेगा . उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि के साथ प्रस्तुत हैं उनके तीन गीत :
1.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलियां फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है ।
2.
इसे मत छेड़
पसर जाएगी
रेत है रेत
बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर है
ज़िन्दगी पांव-पांव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं आकाश तोड़ लाएगी
उठी गांवों से ये ख़म खाकर
एक आंधी सी शहर जाएगी
आंख की किरकिरी नहीं है ये
झांक लो झील नज़र आएगी
सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर सांस दिन उगाएगी
कांच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी ।
3.
मन रेत में नहाया है
आंच नीचे से
आग ऊपर से
वो धुआंए कभी
झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे
बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी
धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है
मन रेत में नहाया है
घास सपनों सी
बेल अपनों सी
सांस के सूत में
सात स्वर गूंथ कर
भैरवी में कभी
साध केदारा
गूंगी घाटी में
सूने धोरों पर
एक आसन बिछाया है
मन रेत में नहाया है
आंधियां कांख में
आसमां आंख में
धूप की पगरखी
ताम्बई अंगरखी
होठ आखर रचे
शोर जैसा मचे
देख हिरनी लजी
साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है
मन रेत में नहाया है ।
***
मैं तो यही कामना करूंगा कि रोटी मुझे मिलती रहे। रोटी का दाता मुझे न बनायें भगवान – जिससे कोई मेरे हाथ मरोड़ कर परोसने की न सोचे।
और एक कदम आगे – इतनी रोटियां हों और इतनी कर्मठता कि सबके पास पर्याप्त हो बिना हाथ मरोड़े।
क्या बतायें, यह हाथ मरोड़ने की बात असहज करती है।
By: Gyan Dutt Pandey on अक्टूबर 6, 2009
at 2:08 अपराह्न
हां, असहज होने के बावजूद भी भदाणी जी को पढ़ना अच्छा लगता है। और इसमें कोई लिपिड़ियाने की बात नहीं है।
By: Gyan Dutt Pandey on अक्टूबर 6, 2009
at 2:15 अपराह्न
शुक्रिया इन दस्तावेजो को यहां बांटने के लिए….
By: Dr Anurag on अक्टूबर 6, 2009
at 2:37 अपराह्न
इन गीतों को सैंकड़ों बार पढ़ा और गुनगुनाया है, हर बार लगता है मैं नहीं हिन्दुस्तान का अवाम यही गा रहा है।
By: दिनेशराय द्विवेदी on अक्टूबर 6, 2009
at 4:39 अपराह्न
आभार इन रचनाओं का प्रस्तुत करने का.
By: समीर लाल on अक्टूबर 6, 2009
at 4:50 अपराह्न
सच,पढ़कर लगा कि गीत के कुशल बुनकर थे । उनकी स्मृति को सलाम ।
By: अफ़लातून on अक्टूबर 6, 2009
at 6:02 अपराह्न
भादानी जी के गीत हमारे समय की थाति हैं…
धन्यवाद….
उनकी स्मृति को सलाम…
By: रवि कुमार, रावतभाटा on अक्टूबर 8, 2009
at 12:46 अपराह्न
It’s really a great effort. Thanks for bringing up such greats.
By: Tilak on अक्टूबर 12, 2009
at 6:05 अपराह्न