मुक्तिबोध की एक छोटी कविता
विचार आते हैं
विचार आते हैं —
लिखते समय नहीं
लिखते समय नहीं
बोझा ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चाँद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में
विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
… पत्थर ढोते वक्त
पीठ पर उठाते वक्त बोझ
सांप मारते समय पिछवाडे
बच्चे की नेकर पछीटते वक्त !!
पत्थर पहाड बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता है …
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मुक्तिबोध की इस कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद देखें :
Thoughts Arrive
thoughts arrive
not while writing
while carrying load on back
while hauling weight over head
while toiling
moon rises and
shimmers on water
water of the heart
thoughts arrive
not while writing
…while carrying stone
while hauling load over back
while killing snake in the backyard
while washing a child’s knickers
stones become mountains
maps turn physical
backs turn into turtles
time becomes the earth…
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(English translation by Ghazala; courtesy : http://ghazala.wordpress.com)
मुक्तिबोध की यह कविता मेरी प्रिय कविताओं में से है मै अनेक जगह इसे उद्ध्रत करता हूँ । विशेष रूप से गज़ाला का यह अनुवाद बहुत अच्छा बन पड़ा है यह कविता का अर्थ ठीक तरह से प्रकट कर रहा है ।
By: शरद कोकास on नवम्बर 26, 2009
at 12:48 अपराह्न
बहुत आभार इसे पढ़वाने का.
By: समीर लाल ’उड़न तश्तरी’ वाले on नवम्बर 26, 2009
at 1:17 अपराह्न
शुक्रिया इसे यहाँ बांटने के लिए ….
By: Dr Anurag on नवम्बर 26, 2009
at 2:26 अपराह्न
विचार आने की बात भली कही मुक्तिबोध जी ने। कुछ अजीब मनमौजी होते हैं विचार। सयास आते नहीं, अनायास चले आते हैं।
By: Gyan Dutt Pandey on नवम्बर 26, 2009
at 2:28 अपराह्न
पर पृष्ठभूमि में बहुत मेहनत मांगते हैं विचार!
By: Gyan Dutt Pandey on नवम्बर 26, 2009
at 2:29 अपराह्न
मुक्तिबोध जी छोटी कविताएं बहुत कम ही लिखा करते थे..मगर उनमे से यह मेरी हमेशा सबसे प्रिय कविता रही..रचना-प्रक्रिया को फ़तांसी से नही वरन् अनुभवजन्य कठोर यथारथों से जोड़ते हुए..गोया कि गर्म कढ़ी के स्वाद मे बटलोई का चुल्हे की आँच मे झुलसना घुला हुआ हो..अनुवाद भी पढ़ाने के लिये शुक्रिया!!
By: apoorv on नवम्बर 26, 2009
at 5:03 अपराह्न
विचार भौतिक परिस्थितियों से पैदा होते हैं। वे टपकते नहीं। इस बात को बहुत, बहुत ही कलात्मक रीति से कहा है मुक्तिबोध ने।
By: Dineshrai Dwivedi on नवम्बर 26, 2009
at 5:15 अपराह्न
विचार के उपासकों को आईना दिखाती एक उम्दा कविता…
By: रवि कुमार, रावतभाटा on नवम्बर 26, 2009
at 5:44 अपराह्न
लाजवाब, सत्य और सत्य
By: Krishna Kumar Mishra on नवम्बर 29, 2009
at 7:08 अपराह्न
“पत्थर पहाड बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता है …”
अच्छा लगा नवीन परिस्थितियों और पुरातन अंतरिक्ष विज्ञान का मेल!
By: varun on दिसम्बर 12, 2009
at 6:59 अपराह्न