Posted by: PRIYANKAR | जनवरी 25, 2010

रिश्ता

अनामिका की एक कविता

 रिश्ता

वह बिलकुल अनजान थी !
मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
कि हम एक पंसारी के ग्राहक थे
नए मुहल्ले में ।

 
वह मेरे पहले से बैठी थी
टॉफ़ी के मर्तबान से टिककर
स्टूल के राजसिंहासन पर ।

मुझसे भी ज्यादा थकी दीखती थी वह
फिर भी वह हँसी !
उस हँसी का न तर्क था
न व्याकरण
न सूत्र
न अभिप्राय !
वह ब्रह्म की हँसी थी ।

 
उसने फिर हाथ भी बढ़ाया
और मेरी शाल का सिरा उठाकर
उसके सूत किए सीधे
जो बस की किसी कील से लगकर
भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे ।

 
पल भर को लगा, उसके उन झुके कंधों से
मेरे भन्नाए हुए सिर का
बेहद पुराना है बहनापा ।

****


Responses

  1. बहुत खूबसूरत बहनापा है यह ।

  2. बहुत ही सुन्दर लगी । हार्दिक बधाई ।

  3. सुंदर कविता!

  4. वाह … कितना निश्छल बहनापा

  5. इस सुन्दर कविता का आभार ।


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