अनामिका की एक कविता
रिश्ता
वह बिलकुल अनजान थी !
मेरा उससे रिश्ता बस इतना था
कि हम एक पंसारी के ग्राहक थे
नए मुहल्ले में ।
वह मेरे पहले से बैठी थी
टॉफ़ी के मर्तबान से टिककर
स्टूल के राजसिंहासन पर ।
मुझसे भी ज्यादा थकी दीखती थी वह
फिर भी वह हँसी !
उस हँसी का न तर्क था
न व्याकरण
न सूत्र
न अभिप्राय !
वह ब्रह्म की हँसी थी ।
उसने फिर हाथ भी बढ़ाया
और मेरी शाल का सिरा उठाकर
उसके सूत किए सीधे
जो बस की किसी कील से लगकर
भृकुटि की तरह सिकुड़ गए थे ।
पल भर को लगा, उसके उन झुके कंधों से
मेरे भन्नाए हुए सिर का
बेहद पुराना है बहनापा ।
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बहुत खूबसूरत बहनापा है यह ।
By: Asha Joglekar on जनवरी 25, 2010
at 2:10 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर लगी । हार्दिक बधाई ।
By: अफ़लातून on जनवरी 25, 2010
at 2:24 अपराह्न
सुंदर कविता!
By: दिनेशराय द्विवेदी on जनवरी 25, 2010
at 4:44 अपराह्न
वाह … कितना निश्छल बहनापा
By: padmsingh on जनवरी 26, 2010
at 5:27 पूर्वाह्न
इस सुन्दर कविता का आभार ।
By: हिमांशु on जनवरी 28, 2010
at 10:29 पूर्वाह्न