युवा कवि विमलेश त्रिपाठी की दो कविताएं :
अर्थ विस्तार
जब हम प्यार कर रहे होते हैं
तो ऐसा नहीं
कि दुनिया बदल जाती है
बस यही
कि हमें जन्म देने वाली मां के
चेहरे की हंसी बदल जाती है
हमारे जन्म से ही
पिता के मन में दुबका रहा
सपना बदल जाता है
और
घर में सुबह-शाम
गूंजने वाले
मंत्रों के अर्थ बदल जाते हैं।
*****
वैसे ही आऊंगा
मंदिर की घंटियों की आवाज के साथ
रात के चौथे पहर
जैसे पंछियों की नींद को चेतना आती है
किसी समय के बवंडर में
खो गए
किसी बिसरे साथी के
जैसे दो अदृश्य हाथ
उठ आते हैं हार के क्षणों में
हर रात सपने में
मृत्यु का एक मिथक जब टूटता है
और पत्नी के झुराए होंठो से छनकर
हर सुबह
जीवन में जीवन-रस आता है पुनः जैसे
कई उदास दिनों के
फाके क्षणों के बाद
बासन की खड़खड़ाहट के साथ
जैसे अंतड़ी की घाटियों में
अन्न की सोंधी भाप आती है
जैसे लंबे इंतजार के बाद
सुरक्षित घर पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिए
प्लेटफॉर्म पर पैसेंजर आती है
वैसे ही आऊँगा मैं…..
*****
waah ek naya anubhav…
By: dileep on मई 14, 2010
at 1:58 अपराह्न
विमलेश त्रिपाठी जी की दोनों रचना बहुत बढ़िया लगी ….प्रस्तुति के लिए आभार
By: mahendra mishra on मई 14, 2010
at 2:00 अपराह्न
दोनों कविताएं समय चक्र के तेज़ घूमते पहिए का चित्रण है। कविताओं की पंक्तियां बेहद सारगर्भित हैं।
By: मनोज कुमार on मई 14, 2010
at 3:57 अपराह्न
इतनी सुन्दर कविता पढ़वाने का आभार। यदि कविता के साथ कवि का संक्षिप्त परिचय भी हो तो अच्छा रहेगा।
By: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी on मई 14, 2010
at 6:55 अपराह्न
arth vistar ke maayne samjha….zabardast kavita lagi vimlesh ji..
doosri kavita me prayog kiye gaye bimb dhyaan kheenchte hain …dono hi rachnayen behad umda hain …
By: swapnil on मई 15, 2010
at 4:39 पूर्वाह्न
ओह, लगता है कोई बुला रहा है।
By: Gyandutt Pandey on मई 15, 2010
at 10:26 पूर्वाह्न
क्या बेहतर अहसास…
बहुत ही प्रभावशाली कविताएं…बेजोड़….
By: रवि कुमार, रावतभाटा on मई 15, 2010
at 2:50 अपराह्न
आपक सबके इस असीम स्नेह के लिए धन्यवाद….प्रियंकर भइया का भी बहुत आभार
By: विमलेश त्रिपाठी on मई 17, 2010
at 5:27 पूर्वाह्न
किसी बिसरे साथी के
जैसे दो अदृश्य हाथ
उठ आते हैं हार के क्षणों में
aur
कई उदास दिनों के
फाके क्षणों के बाद
बासन की खड़खड़ाहट के साथ
जैसे अंतड़ी की घाटियों में
अन्न की सोंधी भाप आती है
waah kya baat hai bimlesh jee. jo abhinav bimb aapne utaare hain wo kaabil-e-tareef hai.
By: kalpana on मई 17, 2010
at 6:20 पूर्वाह्न
thanks kalpana……….
By: विमलेश त्रिपाठी on मई 17, 2010
at 8:06 पूर्वाह्न
वाह, बहुत खूब. विमलेश जी को बधाई।
समय निकाल कर यहां भी क्लिक करें –
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By: नीलम शर्मा 'अंशु' on जून 21, 2010
at 3:09 अपराह्न
शब्द स्फीति व शब्दावमूल्यन के समय मेँ “अर्थविस्तार” पढ़ कर अच्छा लगा।
By: संदीप प्रसाद on अक्टूबर 7, 2010
at 6:34 अपराह्न
भाई विमलेश जी की कवितायेँ अच्छी लगीं. संवेदना से भरी और सच की तरह सहज! पर सबसे अच्छी लगी प्लेटफार्म पर पैसेंजर आने की बात और उसमें सुन लेना मधुर संगीत. बधाई.
By: Hindi Sahitya on दिसम्बर 27, 2010
at 11:33 पूर्वाह्न