1.
आम के बाग़
आम के फले हुए पेड़ों
के बाग़ में
कब जाऊँगा ?
मुझे पता है कि
अवध, दीघा और मालदह में
घने बाग़ हैं आम के
लेकिन अब कितने और
कहाँ कहाँ
अक्सर तो उनके उजड़ने की
ख़बरें आती रहती हैं ।
बचपन की रेल यात्रा में
जगह जगह दिखाई देते थे
आम के बाग़
बीसवीं सदी में
भागलपुर से नाथनगर के
बीच रेल उन दिनों जाती थी
आम के बाग़ों के बीच
दिन में गुजरो
तब भी
रेल के डब्बे भर जाते
उनके अँधेरी हरियाली
और ख़ुशबू से
हरा और दूधिया मालदह
दशहरी, सफेदा
बागपत का रटौल
डंटी के पास लाली वाले
कपूर की गंध के बीजू आम
गूदेदार आम अलग
खाने के लिए
और रस से भरे चूसने के लिए
अलग
ठंढे पानी में भिगोकर
आम खाने और चूसने
के स्वाद से भरे हैं
मेरे भी मन प्राण
हरी धरती से अभिन्न होने में
हज़ार हज़ार चीज़ें
हाथ से तोड़कर खाने की सीधे
और आग पर पका कर भी
यह जो धरती है
मिट्टी की
जिसके ज़रा नीचे नमी
शुरू होने लगती है खोदते ही !
यह जो धरती
मेढक और झींगुर
के घर जिसके भीतर
मेढक और झींगुर की
आवाज़ों से रात में गूँजने वाली
यह जो धारण किये हुए है
सुदूर जन्म से ही मुझे
हम ने भी इसे संवारा है !
यह भी उतनी ही असुरक्षित
जितना हम मनुष्य इन दिनों
आम जैसे रसीले फल के लिए
भाषा कम पड़ रही है
मेरे पास
भारतवासी होने का सौभाग्य
तो आम से भी बनता है !
2.
गाय और बछड़ा
एक भूरी गाय
अपने बछड़े के साथ
बछड़ा क़रीब एक दिन का होगा
घास के मैदान में
जो धूप से भरा है
बछड़ा भी भूरा ही है
लेकिन उसका नन्हा
गीला मुख
ज़रा सफेद
उसका पूरा शरीर ही गीला है
गाय उसे जीभ से चाट रही है
गाय थकी हुई है ज़रूर
प्रसव की पीड़ा से बाहर आई है
फिर भी
बछड़े को अपनी काली आँखों से
निहारती जाती है
और उसे चाटती जा रही है
बछड़े की आँखें उसकी माँ
से भी ज़्यादा काली हैं
अभी दुनिया की धूल से अछूती
बछड़ा खड़ा होने में लगा है
लेकिन
कमल के नाल जैसी कोमल
उसकी टाँगें
क्यों भला ले पायेंगी उसका भार !
वह आगे के पैरों से ज़ोर लगाता
है
उसके घुटने भी मुड़ रहे हैं
पहली पहली बार
ज़रा-सा उठने में गिरता
है कई बार घास पर
गाय और चरवाहा
दोनों उसे देखते हैं
सृष्टि के सबक हैं अपार
जिन्हें इस बछड़े को भी सीखना होगा
अभी तो वह आया ही है
मेरी शुभकामना
बछड़ा और उसकी माँ
दोनों की उम्र लम्बी हो
चरवाहा बछड़े को
अपनी गोद में लेकर
जा रहा है झोपड़ी में
गाय भी पीछे-पीछे दौड़ती
जा रही है।
***
आम, गाय, बछड़ा,
हमारे परिवेश का हिस्सा।
By: प्रवीण पाण्डेय on मई 3, 2011
at 9:24 पूर्वाह्न
देर आयद दुरुस्त आयद।
By: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी on मई 3, 2011
at 12:38 अपराह्न
काफी समय के बाद आई आलोक धन्वा जी की नई कविताओं को पढ़ना सुखद है . कवि को शुभकामनाएं .
By: महेश वर्मा on मई 3, 2011
at 2:27 अपराह्न
आलोक धन्वा को पढ़ना अपने समय से मुठभेड़ करना होता है-
“यह भी उतनी ही असुरक्षित
जितना हम मनुष्य इन दिनों” पंक्तियों की कसमसाहट देखिये।
और- ” सृष्टि के सबक हैं अपार
जिन्हें इस बछड़े को भी सीखना होगा
अभी तो वह आया ही है”
By: Dr. N. K. Neelam on मई 3, 2011
at 4:00 अपराह्न
अच्छा लगा इतने दिन बाद आलोक जी को पढना…
By: अशोक कुमार पाण्डेय on मई 4, 2011
at 7:59 पूर्वाह्न
aam kavita ko padhne me bahut aanand aya isse hame kafi sikh hui
By: md.zeeshan on मई 17, 2013
at 11:14 पूर्वाह्न