Posted by: PRIYANKAR | नवम्बर 18, 2009

दूर तारा / गजानन माधव मुक्तिबोध

दूर तारा

तीव्र – गति
अति दूर तारा
वह हमारा शून्य के विस्तार नीले में चला है !

और नीचे लोग उस को देखते हैं, नापते हैं गति, उदय औ’ अस्त का इतिहास !
किंतु इतनी दीर्घ दूरी
शून्य के उस कुछ-न-होने से बना जो नील का आकाश
वह एक उत्तर
दूरबीनों की सतत आलोचनाओं को
नयन-आवर्त के सीमित निदर्शन या कि दर्शन-यत्न को !
वे नापने वाले लिखें उस के उदय औ’ अस्त कि गाथा
सदा ही ग्रहण का विवरण !
किंतु वह तो चला जाता
व्योम का राही
भले ही दृष्टि के बाहर रहे- उस का विपथ ही बना जाता !

और जाने क्यों, मुझे लगता कि ऐसा ही अकेला नील तारा
तीव्र -गति
जो शून्य मे निस्संग
जिस का पथ विराट-
वह छिपा प्रत्येक उर में
प्रति ह्रदय के कल्मषों के बाद भी है शून्य नीलाकाश !
उसमें भागता है एक तारा
जो कि अपने ही प्रगति पथ का सहारा
जो कि अपना ही स्वयं बन चला चित्र
भीतिहीन विराट-पुत्र !
इसलिए प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करना चाहता हूँ !

*****

मुक्तिबोध की यह कविता अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक(1943) में संकलित है .


प्रतिक्रियाएँ

  1. शुक्रिया मुक्तिबोध के लिए !

  2. @ उसमें भागता है एक तारा
    जो कि अपने ही प्रगति पथ का सहारा
    जो कि अपना ही स्वयं बन चला चित्र
    भीतिहीन विराट-पुत्र !
    इसलिए प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करना चाहता हूँ !

    तमाम दुश्चिंताओं के कवि होते हुए भी मुक्तिबोध आशावाद के चरम तक पहुँचा देते हैं। कवि के रूप में उनकी अतिरिक्त लोकप्रियता का कारण यही है।


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