दूर तारा
तीव्र – गति
अति दूर तारा
वह हमारा शून्य के विस्तार नीले में चला है !
और नीचे लोग उस को देखते हैं, नापते हैं गति, उदय औ’ अस्त का इतिहास !
किंतु इतनी दीर्घ दूरी
शून्य के उस कुछ-न-होने से बना जो नील का आकाश
वह एक उत्तर
दूरबीनों की सतत आलोचनाओं को
नयन-आवर्त के सीमित निदर्शन या कि दर्शन-यत्न को !
वे नापने वाले लिखें उस के उदय औ’ अस्त कि गाथा
सदा ही ग्रहण का विवरण !
किंतु वह तो चला जाता
व्योम का राही
भले ही दृष्टि के बाहर रहे- उस का विपथ ही बना जाता !
और जाने क्यों, मुझे लगता कि ऐसा ही अकेला नील तारा
तीव्र -गति
जो शून्य मे निस्संग
जिस का पथ विराट-
वह छिपा प्रत्येक उर में
प्रति ह्रदय के कल्मषों के बाद भी है शून्य नीलाकाश !
उसमें भागता है एक तारा
जो कि अपने ही प्रगति पथ का सहारा
जो कि अपना ही स्वयं बन चला चित्र
भीतिहीन विराट-पुत्र !
इसलिए प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करना चाहता हूँ !
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मुक्तिबोध की यह कविता अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक(1943) में संकलित है .
शुक्रिया मुक्तिबोध के लिए !
By: Arvind Mishra on नवम्बर 18, 2009
at 1:43 अपराह्न
@ उसमें भागता है एक तारा
जो कि अपने ही प्रगति पथ का सहारा
जो कि अपना ही स्वयं बन चला चित्र
भीतिहीन विराट-पुत्र !
इसलिए प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करना चाहता हूँ !
तमाम दुश्चिंताओं के कवि होते हुए भी मुक्तिबोध आशावाद के चरम तक पहुँचा देते हैं। कवि के रूप में उनकी अतिरिक्त लोकप्रियता का कारण यही है।
By: गिरिजेश राव on नवम्बर 19, 2009
at 5:17 पूर्वाह्न