Posted by: PRIYANKAR | फ़रवरी 9, 2018

मुसलमान / देवीप्रसाद मिश्र

वे मुसलमान थे

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे

उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न ! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलिस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा रागदेश थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान !
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे

–*–*–

मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन

मैं जितने लोगों को जानता हूँ

उनमें से बहुत कम लोगों से होती है मिलने की इच्छा

बहुत कम लोगों से होता है बतियाने का मन

बहुत कम लोगों के लिए उठता है आदर-भाव

बहुत कम लोग हैं ऐसे

जिनसे कतरा कर निकल जाने की इच्छा नहीं होती

काम-धन्धे, खाने-पीने, बीवी-बच्चों के सिवा

बाकी चीजों के लिए

बन्द हैं लोगों के दरवाजे

बहुत कम लोगों के पास है थोड़ा-सा समय

तुम्हारे साथ होने के लिए

शायद ही कोई तैयार होता है

तुम्हारे साथ कुछ खोने के लिए

 

चाहे जितना बढ़ जाय तुम्हारे परिचय का संसार

तुम पाओगे बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे

स्वाधीन है जिनकी बुद्धि

जहर नहीं भरा किसी किस्म का जिनके दिमाग में

किसी चकाचौंध से अन्धी नहीं हुई जिनकी दृष्टि

जो शामिल नहीं हुए किसी भागमभाग में

बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे

जो खोजते रहते हैं जीवन का सत्त्व

असफलताएं कर नहीं पातीं जिनका महत्त्व

जो जानना चाहते हैं हर बात का मर्म

जो कहीं भी हों चुपचाप निभाते हैं अपना धर्म

इने-गिने लोग हैं ऐसे

जैसे एक छोटा-सा टापू है

जनसंख्या के इस गरजते महासागर में

 

और इन बहुत थोड़े-से लोगों के बारे में भी

मिलती हैं शर्मनाक खबरें जो तोड़ती हैं तुम्हें भीतर से

कोई कहता है

वह जिन्दगी में उठने के लिए गिर रहा है

कोई कहता है

वह मुख्यधारा से कट गया है

और फिर चला जाता है बहकती भीड़ की मझधार में

कोई कहता है वह काफी पिछड़ गया है

और फिर भागने लगता है पहले से भागते लोगों से ज्यादा तेज

उसी दाँव-पेंच की घुड़-दौड़ में

कोई कहता है वह और सामाजिक होना चाहता है

और दूसरे दिन वह सबसे ज्यादा बाजारू हो जाता है

कोई कहता है बड़ी मुश्किल है

सरल होने में

 

इस तरह इस दुनिया के सबसे विरल लोग

इस दुनिया को बनाने में

कम करते जाते हैं अपना योग

और भी दुर्लभ हो जाते हैं

दुनिया के दुर्लभ लोग

 

और कभी-कभी

खुद के भी काँपने लगते हैं पैर

मनुष्यता के मोर्चे पर

अकेले होते हुए

 

सबसे पीड़ाजनक यही है

इन विरल लोगों का

और विरल होते जाना

 

एक छोटा-सा टापू है मेरा सुख

जो घिर रहा है हर ओर

उफनती हुई बाढ़ से

 

जिस समय काँप रही है यह पृथ्वी

मनुष्यो की संख्या के भार से

गायब हो रहे हैं

मनुष्यता के मोर्चे पर लड़ते हुए लोग ।


प्रार्थना – 4

 

यही प्रार्थना है प्रभु तुमसे

जब हारा हूं तब न आइए।

 

वज्र गिराओ जब-जब तुम

मैं खड़ा रहूं यदि सीना ताने

नर्क अग्नि में मुझे डाल दो

फिर भी जिऊं स्वर्ग-सुख माने

मेरे शौर्य और साहस को

करुणामय हों तो सराहिए

चरणों पर गिरने से मिलता है

जो सुख वह नहीं चाहिए।

 

दुख की बहुत बड़ी आंखें हैं

उनमें क्या जो नहीं समाया

यह ब्रह्माण्ड बहुत छोटा है

जिस पर तुम्हें गर्व हो आया

एक अश्रु की आयु मुझे दे

कल्प चक्र यह लिए जाइए।

प्रार्थना -1

 

नहीं नहीं प्रभु तुमसे

शक्ति नहीं मांगूंगा।

 

अर्जित करूंगा उसे मरकर बिखरकर

आज नहीं कल सही आऊंगा उबरकर

कुचल भी गया तो लज्जा किस बात की

रोकूंगा पहाड़ गिरता

शरण नहीं मांगूंगा

नहीं नहीं प्रभु तुमसे

शक्ति नहीं मांगूंगा।

 

कब मांगी गंध तुमसे गंधहीन फूल ने

कब मांगी कोमलता तीखे खिंचे शूल ने

तुमने जो दिया दिया

अब जो है मेरा है।

सोओ तुम व्यथा रैन अब मैं ही जागूंगा।

नहीं नहीं प्रभु तुमसे

शक्ति नहीं मांगूंगा।

***

चीनी कवि सू तुंग पो की कविताएं

Su Tung-Po (1037–1101)

(बरास्ता अंग्रेज़ी से अनुवाद : प्रियंकर पालीवाल )

बेटे के जन्म पर

जब होता है बच्चे का जन्म

परिवार करता है कामना वह मेधावी हो, निकले बुद्धिमान

मैंने अपनी मेधा से नष्ट किया अपना समूचा जीवन

रहा हूं हैरान और परेशान

करता हूं उम्मीद कि बच्चा निकलेगा अज्ञानी और  मूर्ख

इस तरह जिएगा शांत-सुखी जीवन

बन सकेगा राजमंत्री महान !

2.

यादगार

पृथ्वी पर हमारे जीवन की तुलना किससे की जा सकती है ?

बर्फ पर उतरते

हंसों के झुंड से .

जो कभी-कभी अपने पदचिह्न छोड़ जाता है ।  .

****

Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 8, 2014

असअद बदायुनी की एक गजल

मेरी  अना  मेरे  दुश्मन  को ताज़ियाना  है
इसी चराग  से  रौशन  गरीब-खाना  है  ।

मैं इक  तरफ  हूँ किसी  कुंज-ए-कम-नुमाई में
और  एक  सम्त  जहाँ-दारी-ए-जमाना है  ।

ये  ताएरों  की  कतारें किधर  को  जाती  हैं
न  कोई दाम  बिछा  है कहीं   न  दाना  है  ।

अभी  नहीं है मुझे मस्लहत  की धूप का खौफ
अभी  तो  सर  पे  बगावत  का शामियाना  है  ।

मेरी  गजल  में रजज़ की है  घन-गरज  तो  क्या
सुखन-वरी  भी  तो  कार-ए-सिपाहियाना है  ।

****

अना = स्वाभिमान

ताजियाना = चाबुक ,  कोड़े लगाने  की  सजा

नुमाई = प्रदर्शन, दिखाना

जहांदारी = शहंशाही

ताएरों = पक्षियों

दाम = जाल

मस्लहत = परामर्श ,  सलाह

रजज़ = वंश-गौरव

सुखनवरी = शायरी

कार-ए-सिपाहियाना =  सिपाहियों की  तरह  का काम

सांग का पूरा ग्यान का ऊरा , पेट का तूटा डिंभ का सूरा 
बदन्त गोरखनाथ न पाया जोग , करि पाखंड रिझाया लोग । 

( जो स्वांग करने में पूरा और ज्ञान में अधूरा है ,जिसका पेट खाली है (बड़ा पेट जिसमें समाता बहुत है) और जो दंभ करने में शूर-वीर है,गोरख कहते हैं उसे योग नहीं प्राप्त होता । वह केवल पाखंड कर लोगों को प्रसन्न करना जानता है । ) 

— गुरु गोरखनाथ ( 11 वीं/12वीं शताब्दी)

Posted by: PRIYANKAR | फ़रवरी 1, 2013

बड़की भौजी / कैलाश गौतम

(1944 - 2006)

(1944 – 2006)

जनकवि कैलाश गौतम (1944 – 2006) विरल प्रजाति के गीतकार थे . लोकभाषा का अनुपम छंद और लोकसंवेदना से गहरी संपृक्ति उनकी कविताओं और गीतों को विशिष्ट किस्म के आत्मीय-प्रकाश से भर देती है . आंचलिक बिम्बों से परिपुष्ट लोकराग की एक अनूठी बयार बहती है उनके गीतों में . पारम्परिक समाज और मानवीय संबंधों के टूटने के एक प्रच्छन्न करुण-संगीत — एक दबी कराह — के साथ नॉस्टैल्जिया की एक अंतर्धारा उनकी कविता में हमेशा विद्यमान दिखाई देती है. यहां तक कि बाहरी तौर पर हास्य-व्यंग्य का बाना धरने वाली कविताओं में भी पीड़ा की यह रेख स्पष्ट लक्षित की जा सकती है. वे खुद भी वैसे ही थे . आत्मीयता से भरे-पूरे,हँसमुख और हरदिल अजीज़ . ‘गांव गया था,गांव से भागा’,’अमवसा क मेला’,’सब जैसा का तैसा’,’गान्ही जी’, और ‘कचहरी न जाना’ जैसी उनकी कविताएं/गीत लोकप्रियता का मानक बन गए थे. ‘बाबू आन्हर माई आन्हर’ जैसे गीत कबीरी परम्परा के बिना नहीं आ सकते थे. बीसवीं सदी के आधुनिक हिंदी गीति-काव्य का अगर कोई ठेठ पूर्वी घराना है तो कैलाश गौतम उसके प्रतिनिधि कवि-गीतकार हैं . हिंदी के पूरब अंग के अपूर्व कवि.

‘सिर पर आग’ की भूमिका में प्रो. दूधनाथ सिंह ने ठीक ही लिखा है कि : “कैलाश गौतम कोई दुधमुहें कवि नहीं हैं कि उनका परिचय देना जरूरी हो। लेकिन जो कवि फन और फैशन से बाहर खड़ा हो उससे लोग परिचित होना भी जरुरी नहीं समझते। क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौंदर्यशास्त्र की बनी बनायी श्रेणियाँ खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अंटते। वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खांचे के काम के नहीं। इसका सीधा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिये एक अलग और और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र की मांग करता है।”

कैलाश गौतम के गीत अपने स्कूल-कॉलेज दिनों से ही धर्मयुग तथा अन्य पत्रिकाओं में पढता रहा था . और उनका बड़ा प्रशंसक था . विवाह के बाद मेरे छोटे भाई,विशेषकर कनु , अपनी भाभी की हंसी को लक्षित करके कैलाश जी की कविता ‘बड़की भौजी’ की पंक्तियां बार-बार दुहराया करते थे . यह कविता उस समय धर्मयुग के किसी अंक में बहुत आकर्षक ढंग से छपी थी . जनवरी 2006 में शांतिनिकेतन में आकाशवाणी की स्वर्णजयंती पर आयोजित कवि सम्मेलन में मुझे उनके साथ काव्य पाठ करने का और उनके साथ दो दिन रहने का मौका मिला . जब उन्हें ‘बड़की भौजी’ से संबंधित यह पारिवारिक प्रसंग बताया तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझे खींचकर गले से लगा लिया . कविता प्रस्तुत है :

बड़की भौजी

जब देखो तब बड़की भौजी हँसती रहती है
हँसती रहती है कामों में फँसती रहती है।
झरझर झरझर हँसी होंठ पर झरती रहती है
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती है॥

डोरा देह कटोरा आँखें जिधर निकलती है
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है।
खुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती है
आधी रात गए तक भौजी घर में खटती है॥

कभी न करती नखरा-तिल्ला सादा रहती है
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती है।
सबका मन रखती है घर में सबको जीती है
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती है॥

चौका-चूल्हा, खेत-कियारी, सानी-पानी में
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में।
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
निकल गई आगे से बिल्ली गाली देती है॥

भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती है
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती है।
इधर भागती उधर भागती नाचा करती है
बड़की भौजी सबका चेहरा बांचा करती है॥

फुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है
अदरक वाली चाय पिलाती पान खिलाती है।
भईया बदल गये पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उल्टे पल्ला निकली नहीं कभी॥

हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में।
मुंह पर छींटा मार-मार कर ननद जगाती है
कौवा को ननदोई कहकर हँसी उड़ाती है ॥

बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती है गरी-चिरौंजी फागुन में।
छ्ठे-छमासे गंगा जाती पुण्य कमाती है
इनकी-उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती है॥

आँगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
घर में कोई सौत न आये यही मनाती है।
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गयी
दाल परसकर बैठी रोटी देना भूल गयी॥

***

 

 

 

 

 

शहरयार  (1936-2012)

अखलाक मुहम्मद खान  ‘शहरयार’

1.

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं

जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं

अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं

जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं

काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं

2.

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के

आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के

इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के

कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

3.

जिन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज जियादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

4.

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं

इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं

इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं

इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

****

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