मानिक बच्छावत की एक कविता
ठंडी आलमारी
उन्होंने खरीद ली है
ठंडी आलमारी
बूढे-बच्चे खुश
खूब खाने को मिलेगी बरफ
जब चाहेंगे निकालकर
पिएंगे ठंडा पेय
और सारा सामान
सुरक्षित अलग से
सिर्फ उदास है
घर की मेहरिन
अब उसे बचा-खुचा भी
नहीं मिलेगा खाने को ।
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(काव्य संकलन ‘पीड़ित चेहरों का मर्म’ से साभार)
वसंतोत्सव के बाद आप आये और फूलों की जगह बांट गये टीस और दुख – महरी का दुख।
अब मैं सोचूंगा – कैसे सम्पन्न होगी महरी; कैसे वह भी खरीद पायेगी एक ठण्डी अलमारी।
दिक्कत यही है – लोग उस सोच को केवल साधन सम्पन्न का मनोविनोद कहेंगे।
By: ज्ञानदत्त पाण्डेय on फ़रवरी 12, 2008
at 12:25 अपराह्न
satya pradrashan,bahut khub
By: mehhekk on फ़रवरी 12, 2008
at 4:20 अपराह्न
ek achchha kaawy jo deen ke dukh ko spashhT karata hai… sundar…
By: विनय प्रजापति on फ़रवरी 12, 2008
at 5:14 अपराह्न
मानिक दा को मेरा प्रणाम कहें….
By: बोधिसत्व on फ़रवरी 13, 2008
at 3:23 पूर्वाह्न