सबसे बुरा दिन
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी
जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब नदी लागू कर देगी नया विधान
कि अबसे सभ्यताएं
अनुज्ञापत्र के पश्चात ही विकसित हो सकेंगी
अधिकृत सभ्यता-नियोजक ही
मंजूर करेंगे बसावट और
वैचारिक बुनावट के मानचित्र
यह नवप्रवर्तन की नसबंदी का दिन होगा
भारत और पाकिस्तान के बीच
विवाद का नया विषय होगा
सहस्राब्दियों से बाकी
सिंधु सभ्यता के नगरों को आपूर्त
जल के शुल्क का भुगतान
मुद्रा कोष के संपेरों की बीन पर
फन हिलाएंगी खस्ताहाल बहरी सरकारें
राष्ट्रीय गीतों की धुन तैयार करेंगे
विश्व बैंक के पेशेवर संगीतकार
आर्थिक कीर्तन के कोलाहल की पृष्ठभूमि में
यह बंदरबांट के नियम का अंतरराष्ट्रीयकरण होगा
शास्त्र हर हाल में
आशा की कविता के पक्ष में है
सत्ता और संपादक को सलामी के पश्चात
कवि को सुहाता है करुणा का धंधा
विज्ञापन युग में कविता और ‘कॉपीराइटिंग’ की
गहन अंतर्क्रिया के पश्चात
जन्म लेगी ‘विज्ञ कविता’
यह नई विधा के जन्म पर सोहर गाने का दिन होगा
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब जुड़वां भाई
भूल जाएगा मेरा जन्म दिन
यह विश्वग्राम की
नव-नागरिक-निर्माण-परियोजना का अंतिम चरण होगा ।
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( समकालीन सृजन के नए अंक ‘कविता इस समय’ से साभार )
[…] सबसे अच्छी कविता जो मुझे लगती है वह हैसबसे बुरा दिन! – सबसे बुरा दिन वह होगा जब कई […]
By: फुरसतिया » किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन on अक्टूबर 19, 2007
at 6:45 अपराह्न
It is really good imagination and worth appriciable.
By: Ram Bhai on मई 21, 2008
at 3:02 अपराह्न
[…] जगत-जीवन के कार्य-व्यापार में प्रेम का तुलनपत्र अब कौन देखे ! अपने अधूरे प्रेम के जलयान में शांत मन चला जाना चाहता हूं विश्वास के उस अपूर्व द्वीप की ओर जहां मेरी और तुम्हारी कामनाओं के जीवाश्म विश्राम कर रहे हैं । प्रियंकर […]
By: उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए on जुलाई 1, 2009
at 2:58 पूर्वाह्न
The best wepage for Hindi Poetry……Amazing..
By: RAJESHWAR VASHISTHA on अगस्त 26, 2009
at 2:10 अपराह्न
प्रियंकर जी,बहुत अच्छी कविता है. आपकी तारीफ़. कवि से शायद दूसरी पंक्ति में तथ्यात्मक चूक हुई. सूरज की दूरी कई प्रकाशवर्ष नहीं है. या फ़िर लिखें -कोई सूरज(तारा) भेज देगा…
By: अनूप शुक्ला on October 11, 2006
at 5:22 pm
कविता आपको भाई , धन्यवाद अनूप भाई !
एक इंजीनियर कविता पढ़ेगा तो भूल दिखेगी ही . कवि हृदय पाठक पढे़ तो शायद तथ्य को छोड़ कर सत्य को पकड़े और कवि को थोड़ा-सा ‘पोएटिक लाइसेंस’ दे . हालांकि आपने सत्य को भी पकड़ा है . आप डबल रोल में जो हैं . मुझे पता था कि सौर मंडल के सदस्यों की दूरी ए.यू. से मापते हैं ( तब मुझे तथ्यात्मक होना पड़ता और ९३,०००,००० मील या १,४९६,०००,००० किलोमीटर लिखना होता और कविता के प्रवाह का तो सत्यानाश होता ही प्रकाशवर्ष जैसा सुंदर शब्द खगोलशास्त्र की दुनिया से कविता के संसार में न आ पाता ) और आकाश गंगा और उसके परे की दूरियों के लिए खगोल शास्त्रीय मात्रक प्रकाशवर्ष है, यानी एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है उतनी दूरी . मैं इस तथ्य से भी वाकिफ़ था कि प्रकाशवर्ष को बहुत से लोग समय का मात्रक समझते हैं पर है यह दूरी का मात्रक . मेरी प्राथमिकता दूसरी थी और यह शब्द ‘प्रकाशवर्ष’ मेरा दूरी वाला अभिप्राय ठीक-ठीक ध्वनित कर रहा था . आशा है आप मजबूर कवि (मगरूर नहीं)की स्थिति समझेंगे . आपको बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मेरी कविता इतनी सूक्ष्मता से पढ़ी और उसे सराहा .
अनूप भार्गव जी की एक गणितीय कविता पर भी किसी पाठक ने ऐसा ही सवाल उठाया था, उस पर भी मेरी प्रतिक्रिया यही थी . नत्थी कर रहा हूं शायद आपको अच्छी लगे . हो सकता है यह मेरी सीमा हो पर कम से कम मेरी कविता संबंधी समझ यही है.
(अनूप भार्गव की कविता ‘आस्किंग फ़ॉर अ डेट’ पर आई एक टिप्पणी पर मेरी टिप्पणी )
“अनूप भाई! क्या कविता है .पढ़ कर आनन्द आया. कहन की शैली में नवीनता न हो तो बात बनती नहीं है. वृत्त के कोने और परिधि के केन्द्र कोई कवि ही देख सकता है गणितज्ञ नहीं . इसी को तो साहित्यशास्त्र में ‘पोएटिक लाइसेंस’ कहते हैं. काव्य सत्य हमेशा उपलब्ध और जगजाहिर तथ्य से बड़ा होता है क्योंकि वह एक विराट सत्य की ओर संकेत करता है जो हमेशा तथ्यात्मक नहीं होता . रामचरित मानस में लंका काण्ड का प्रसंग देखें — लक्ष्मण शक्ति के लगने से मूर्छित और घायल अवस्था में पड़े है,हनुमान संजीवनी बूटी लेकर अभी तक नहीं लौटे हैं,चिन्तातुर राम बहुत दुखी और विदग्ध मन से कहते हैं :
अस बिचारि जियं जागहु ताता ।
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥
क्या राम यह नहीं जानते थे कि लक्ष्मण उनके सहोदर भाई नहीं हैं या तुलसीदास यह तथ्य नहीं जानते थे . बल्कि तुलसी तो थोड़ी देर बाद राम से यह भी कहलवाते हैं कि :
‘निज जननी के एक कुमारा’
तब ऐसी भूल क्यों हुई? यह भूल नहीं काव्य सत्य है . राम और लक्ष्मण में ऐसा प्रेम था जैसा जैसा सहोदर भाइयों में होता है. या कह सकते हैं कि सहोदर भाइयों से भी बढ़ कर प्रेम था और राम के लिए यह तथ्य महत्वहीन था कि लक्ष्मण उनके सहोदर भाई हैं या नहीं . यही विराट सत्य है जिसे दुनियादार लोग नहीं देख पाते . आप गणित में भी कविता देख पाते हैं और श्रीमान प्रश्नवाचक कविता में भी गणित खोजने का प्रयास कर रहे हैं बस यही अंतर है आप दोनों में . विचलन कविता में नहीं प्रश्नवाचक जी की समझ में है . कविता का एक छोर कवि के पास होता है दूसरा कवि-हृदय पाठक के पास . यहां दूसरा छोर मात्र पाठक है,कवि हृदय नहीं . “
By: प्रियंकर on October 12, 2006
at 6:18 am
बहुत खूब! अनूप जी टिप्पणी और उस पर आपका जवाब बहुत अच्छा लगा।
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब चिठ्ठा चर्चा य नया नारद
भूल जाएगा मेरे।आपके चिठ्ठे को
यह चिठ्ठा लेखन के
सपने का अंतिम चरण होगा
By: nitin on October 12, 2006
at 10:47 am
बहुत अच्छी कविता , और प्रियंकर आपका जवाब भी बहुत भाया
By: pratyaksha on October 13, 2006
at 3:59 am
अनूप भाई,नितिन और प्रत्यक्षा ,
कविता की सराहना के लिए धन्यवाद ! कविताओं के जरिये ही उस बेचैनी से बाहर आने का प्रयास करता हूं जो इस देश की दशा और दिशा को देख कर बढ़ती ही जाती है. कविता लिखना मेरे तईं प्रार्थना करने जैसा है . इस कठिन समय में मनोबल बचाए और बनाए रखने के लिए और क्या करूं .
By: प्रियंकर on October 13, 2006
at 8:01 am
बहुत सुन्दर!
By: rachanabajaj on October 13, 2006
at 8:05 am
अगस्त -सितम्बर,१९९३ की ‘सामयिक वार्ता’ से साभार कुंवर नारायण की यह कविता याद आ गयी :
क्या वह नहीं होगा
क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?
क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?
क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?
क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?
और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?
By: afloo on October 13, 2006
at 9:54 am
brilliant piece. I really liked the line of thought.
By: Aseem on October 13, 2006
at 11:49 am
[…] प्रियंकर अपनी एक सुंदर कविता में उन परिस्थितियों का ज़िक्र कर रहे हैं जो कल्पित और अनचाही तो हैं, शायद असंभव भी, पर अजनबी नहीं लगतीं. इनके पीछे से भविष्य का सच झाँकता लगता है. … पृथ्वी मांग लेगी अपने नमक का मोल मौका नहीं देगी किसी भी गलती को सुधारने का क्रोध में कांपती हुई कह देगी जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई यह भारत के भुज बनने का समय होगा […]
By: DesiPundit » Archives » “सबसे बुरा दिन वह होगा” on October 13, 2006
at 2:29 pm
भई, वाह. बहुत पसंद आई आपकी रचना और वार्तालाप.
By: समीर लाल on October 13, 2006
at 4:02 pm
सोचने पर बाध्य करती है! अब अगर घर में आरक्षण थोप कर काबिल बेटों को कूड़े के डब्बे में फेंका जायेगा तो जौहरी उन्हें उठा कर अपना घर सजाने के लिये तो ले ही जायेगा।
By: अनुराग श्रीवास्तव on October 15, 2006
at 4:47 am
प्रियंकर जी:
बहुत ही खूबसूरत और मौलिक कविता है । अब अगर ज़्यादा तारीफ़ की तो लगेगा कि अपनी कविता की तारीफ़ का उधार चुका रहा हूँ ।
कविता में ‘पोएटिक लाइसेन्स’ की ज़रूरत तो रहेगी ही वरना अखबार ही पढ लीजिये …
वैसे अपने फ़ुरसतिया की दिल के बड़े अच्छे आदमी हैं , कभी कभी सिर्फ़ मौज लेनें के लिये चूटकी ले लेते हैं ।
By: Anoop Bhargava on October 15, 2006
at 4:52 pm
सर्वप्रथम बहुत अच्छी रचना के लिए धन्यवाद ।
आपकी टिप्पणी में थोड़ा और :-
1.कई प्रकाशवर्ष के प्रयोग से प्रकाशवर्ष के अर्थ में कोई अंतर नहीं पड़ा है ।
प्रकाशवर्ष एक मापक (मात्रक) है और इसके आगे एक या हजार लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता.
(आकासगंगा की चौडाई लगभग हजार प्रकाशवर्ष है ।)
2.प्रियंकर जी आपने टिप्पणी में तुलसीदास की बात उठाई है मेरे विचार से मिलइ न जगत सहोदर भ्राता से तात्पर्य यह है कि तू मेरे लिए सहोदर भाई से भी बढ़कर
है । और ‘निज जननी के एक कुमारा’ से तात्पर्य यह है कि मैं अपनी माँ का अकेला हूँ और (तुम मेरे प्राणाधार हो) ।
By: Prabhakar Pandey on October 17, 2006
at 8:51 am
रचना बजाज,अफ़लातून,असीम,समीर लाल,अनुराग श्रीवास्तव,अनूप भार्गव और प्रभाकर पांडे जी ,
रचनाशीलता को सराहने, उसे मान्यता प्रदान करने और कवि का मनोबल बढाने के लिए आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूं . आशा करता हूं आप इसी तरह ‘अनहदनाद’ की ओर आते रहेंगे .
By: प्रियंकर on November 6, 2006
at 10:52 am
प्रियंकर जी,
बहुत अच्छी और गहरी कविता है….. नये शब्द भी सीखने को मिले……बधाई
By: reetesh gupta on June 2, 2007
at 2:05 am
[…] पढ़ने के बाद उनकी अब तक की सबसे बेहतरीन कविता (मेरे अनुसार) पढ़ने को मिली- सबसे बुरा […]
By: फुरसतिया » प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात on July 2, 2007
at 2:56 am
[…] बाकी है’. उन्होंने हमारी एक कविता ‘सबसे बुरा दिन’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की . हम बहुत […]
By: आना फ़ुरसतिया का …. « अनहद नाद on July 9, 2007
at 3:05 pm
प्रियंकर जी, वाकई अद्भुत कविता है कालजयी। हमारे समय की नब्ज़ पर गहरी संवेदनशील पकड़ वाली कविता है। इसका तो पोस्टर बनवा देना चाहिए।
By: अनिल रघुराज on September 7, 2007
at 12:05 pm
[…] थे लेकिन कविता के धुरंधरों ने उनको ‘पोयटिक जस्टिस’ के हथियार से तहस-नहस कर […]
By: फुरसतिया » किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन on October 19, 2007
at 7:09 pm
[…] कोई कायदे की बात कहते हैं तो वे तड़ से पोयटिक जस्टिस की तलवार लेकर भड़ से तर्क/बात की गरदन […]
By: एक चिट्ठी शिवजी के नाम on August 19, 2008
at 3:59 am
बहुत अच्छी कविता….
By: अजित वडनेरकर on August 19, 2008
at 2:22 pm
अब इस कविता का पोस्टर बनाने के लिए इजाजत माँग रहा हूँ ।
By: अफ़लातून on August 6, 2009
at 3:11 pm
अच्छी बात है अच्छे को इतना स्नेह मिल रहा है.
By: प्रमोद सिंह on August 6, 2009
at 4:29 pm
बहुत सुन्दर। अनूठी कल्पना है। बधाई।
By: Laxmi Gupta on August 6, 2009
at 5:56 pm
प्रियंकर भाई समकालीन सृजन कविता इस समय के प्रष्ठ 278 पर छपी यह कविता “सूरज भेज देगा /”लाईट” का लम्बा चौडा बिल् “इन पंक्तियों के कारण मुझे आकर्षित करती है . इनायत फरमाये यहीं पृष्ठ 322 पर मै भी हूँ आपके पडोस में.बहर्हाल ब्लॉग के पाठकों तक यह पहुंची इसके लिये बधाई
By: शरद कोकास on August 6, 2009
at 7:43 pm
बहुत खूब कविता है। इससे ज्यादा क्या लिखूं। बंध सा गया। कालातीत यात्रा।
By: अजित वडनेरकर on August 7, 2009
at 2:31 am
By: प्रियंकर on नवम्बर 16, 2009
at 4:26 अपराह्न
sabse bura din kavita sirf kavita nahin hai balki isme vichar bhi gambhir vichar sabji mein namak ki tarah mila hua hai. Bhoomandalikrit samay ki pramukh chintaen bhi badi siddat ke saath pesh hai. Yah kavita baar baar padhe jaane ki maang karti hai, deserve karti hai.
By: arunhota on जनवरी 16, 2010
at 7:37 अपराह्न
प्रियंकर जी अब भी कोई सूर्य लिख लीजिये -अनूप जी की बात मुझे भी सच लगती है .
और उससे कविता का कोई कवि सत्य भी नहीं प्रभावित होगा बल्कि वाह और भी तथ्यपरक हो जायेगी !
By: arvind mishra on फ़रवरी 26, 2010
at 1:09 पूर्वाह्न
@ अरविंद मिश्र : चलिए आप अनूप जी की बात से सहमत हुए ऐसा दिन तो आया .
By: प्रियंकर on मार्च 4, 2010
at 1:42 अपराह्न
बेहतरीन कविता प्रियंकर जी. आज ही चिट्ठाचर्चा से लिंक मिला. बहुत अनूठा प्रयोग. बधाई.
By: meenukhare on अप्रैल 20, 2010
at 2:01 अपराह्न
वाह…क्या कविता है…एक आयोजन में आपके मुख से यह कविता सुनी थी…. लेकिन तब नहीं आज यहां इसे पढ़कर विस्मित हूं… वाकई बहुत अच्छी कविता….बधाई…..
By: विमलेश त्रिपाठी on सितम्बर 28, 2010
at 5:57 पूर्वाह्न
बहुत प्यारी कविता, काफी कुछ सोचने का अवसर दे गयी। पढ़ते वक्त याद आया, हमारे झारखंड में ऐसे बुरे दन आ चुके हैं। अभी अदालत के आदेश पर, झुग्गी-झोपडि़यां हटाकर गरीब के सिर की छत और ठेले-खोमचे हटाकर दो-जून की रोटी छीनने का भयावह दौर चला। उस वक्त मैंने कहीं लिखा था- झुग्गी में वह रहता है जिसके पास रहने को जगह नहीं। उसे हटा दिये जाने के बाद भी, वह जहां कहीं भी रहे, अतिक्रमण ही कहलाएंगा। तब अगर वह बंदर की तरह पेड़ पर रहने लगे तो क्या इसे पेड़ों का अतिक्रमण कहेंगे? या फिर पंक्षियांे की तरह उड़ना या मछली की तरह तैरना सीख ले तो क्या यह आसमान या तालाब-समुद्र का अतिक्रमण कहलायेगा। भाई प्रियंकर की इस कविता में जब सूरज और पृथ्वी भी अपना बकाया हिसाब मांगती है तो बरबस इस पंूजीवादी सभ्यता के अनंत चेहरे और खतरे दिख पड़ते हैं।
By: Dr. Vishnu Rajgadia on अगस्त 12, 2011
at 7:08 अपराह्न
Where i can find Sanjay Kundan NBT “ulatvansi” writer ?
By: dotnetaskl on अगस्त 13, 2011
at 9:03 पूर्वाह्न
मुझे भी बहुत अच्छी लगी कविता। अनूप जी के कमेंट का उत्तर भी।..आभार।
By: देवेन्द्र पाण्डेय on जुलाई 25, 2012
at 2:32 अपराह्न
[…] हमने उनको Priyankar Paliwal की कविता […]
By: किरणों को दुलराते सूरज भाई on मार्च 23, 2014
at 11:50 पूर्वाह्न
Hindi an had kabityen.
By: anupam on फ़रवरी 20, 2015
at 10:27 पूर्वाह्न