‘कविता के गांधी’ भवानी भाई की एक लोकरंगी कविता
दियना
छांटी माटी की परिपाटी
ढेला बना उजेला रे
बियाबान जंगल में माटी
ऊंची नीची गहरी घाटी
काटी सो माटी
लोहे से नेही
किया झमेला रे
माटी खोदी भर-भर गोदी
सींची जी के जल से
राते हाथों गाते-गाते
राचा दिया नवेला रे
फेंक दिया आगी में दियना
झक-झक बाहर आया
जुगों-जुगों से पड़ा हुआ हूं
बाहर पका-पकाया
बाती डालो नेह भरो रे
माटी हूं प्रकाश करो रे
सईं सांझ सिलगा दो साजन
जलूं अकेला रे !
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भवानी भाई (१९१३-१९८५) की यह अप्रकाशित कविता मित्र लक्ष्मण केडिया (सम्पादक : भवानीप्रसाद मिश्र के आयाम) को वर्ष १९९४ में भवानी भाई के अनन्य प्रशंसक श्री रामेश्वर मालवीय से प्राप्त हुई थी . यह कविता कवि के किसी भी संग्रह में सम्मिलित नहीं थी और अप्रकाशित थी . इसे मैंने ‘दर्पण’ के सितम्बर २००० अंक में पहली बार प्रकाशित किया था और इसकी प्रति अनुपम जी को भी दी थी .
बढिया रचना है।
By: paramjitbali on जुलाई 16, 2007
at 6:41 पूर्वाह्न
अच्छा किया आपने सामने लाकर। इतनी अच्छी कविता अब लोक गीतो में ढल जानी चाहिए थी।
By: ravish kumar on जुलाई 16, 2007
at 7:47 पूर्वाह्न
एक अलग लोक रंग की कविता से परिचित कराने के लिए साधुवाद,
मैं भी गाली पुराण से निकल कर कुछ करने की सोचता हूँ
आप का मंगल हो
साथ में मेरे लिए भी दुआ करें
By: बोधिसत्व on जुलाई 16, 2007
at 8:42 पूर्वाह्न
बहुत अच्छा !
By: प्रत्यक्षा on जुलाई 16, 2007
at 9:43 पूर्वाह्न