एकांत श्रीवास्तव की एक कविता
यात्रा
नदियां थीं हमारे रास्ते में
जिन्हें बार-बार पार करना था
एक सूर्य था
जो डूबता नहीं था
जैसे सोचता हो कि उसके बाद
हमारा क्या होगा
एक जंगल था
नवम्बर की धूप में नहाया हुआ
कुछ फूल थे
हमें जिनके नाम नहीं मालूम थे
एक खेत था
धान का
पका
जो धारदार हंसिया के स्पर्श से
होता था प्रसन्न
एक नीली चिड़िया थी
आंवले की झुकी हुई टहनी से
अब उड़ने को तैयार
हम थे
बातों की पुरानी पोटलियां खोलते
अपनी भूख और थकान और नींद से लड़ते
धूल थी लगातार उड़ती हुई
जो हमारी मुस्कान को ढंक नहीं पाई थी
मगर हमारे बाल ज़रूर
पटसन जैसे दिखते थे
ठंड थी पहाड़ों की
हमारी हड्डियों में उतरती हुई
दिया-बाती का समय था
जैसे पहाड़ों पर कहीं-कहीं
टंके हों ज्योति-पुष्प
एक कच्ची सड़क थी
लगातार हमारे साथ
दिलासा देती हुई
कि तुम ठीक-ठीक पहुंच जाओगे घर ।
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( समकालीन सृजन के अंक ‘यात्राओं का ज़िक्र’ से साभार )
एक कच्ची सड़क थी
लगातार हमारे साथ
दिलासा देती हुई
कि तुम ठीक-ठीक पहुंच जाओगे घर । बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।
By: shobha on अगस्त 12, 2008
at 11:04 पूर्वाह्न
बहुत सुन्दर कविता है। हमेशा की तरह एक और अच्छी रचना पढ़वाने के लिये आभार।
By: रजनी भार्गव on अगस्त 12, 2008
at 11:32 पूर्वाह्न
सुंदर अभिव्यक्ति।
By: दिनेशराय द्विवेदी on अगस्त 12, 2008
at 5:14 अपराह्न
sunder abhiwyakti
By: sandhya arya on मई 6, 2009
at 4:30 अपराह्न
waah…..bhavon our shabdon se bhari yah yatra kitni romanchak hai………….
By: sampoorna pokhriyal on मई 23, 2009
at 9:56 पूर्वाह्न