शहरयार (1936-2012)
अखलाक मुहम्मद खान ‘शहरयार’
1.
ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं
जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं
अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं
जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं
काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं
2.
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
3.
जिन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज जियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
4.
इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं
इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं
इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं
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अहा.. पढ़कर उतरने में आनन्द है…
By: प्रवीण पाण्डेय on फ़रवरी 19, 2012
at 2:25 अपराह्न
प्रियंकर जी पहले वाली गज़ल निदा फाज़ली की लगती है। आप देख लीजिएगा। शहरयार की गज़लें वाकई बेहतरीन है। उनका फिल्मी लेखन भी उतना कमाल का और स्तरीय है। उन्हें श्रद्धांजलि।
By: धीरेश on फ़रवरी 19, 2012
at 5:43 अपराह्न
धीरेश जी आपकी बात सही है. मुझे भी कुछ संदेह था पर बाद में अपनी स्मृति पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया. मित्र प्रेमचन्द गांधी ने भी निजी मेल में इस ओर इशारा किया है . मैंने उस गज़ल के स्थान पर एक दूसरी गज़ल लगा दी है . ध्यान से पढने और सुधार करवाने के लिए आभार !
By: प्रियंकर on फ़रवरी 19, 2012
at 6:43 अपराह्न
एक अच्छा शायर चले जाने के बाद और अच्छा लगता है।
शहरयार को श्रद्धांजलि।
By: Gyandutt Pandey on फ़रवरी 20, 2012
at 1:32 पूर्वाह्न
Kabhi ankahi baaton ki ada hai Dosti,
Kabhi Gam ki dawa hai Dosti,
Kami hai Pujne walon ki,
Warna zameen par khuda hai DOSTI.
Be Friends Forever!
By: Rahul Sharma on मार्च 28, 2012
at 12:56 अपराह्न
bahut hi khoobsoorat.
By: Rakesh on जून 25, 2013
at 8:34 पूर्वाह्न