Posted by: PRIYANKAR | मार्च 29, 2007

त्वचा ही इन दिनों दिखती है चारों ओर : मंगलेश डबराल की एक कविता

 मंगलेश डबराल

त्वचा

 

त्वचा ही इन दिनों दिखती है चारों ओर

त्वचामय बदन त्वचामय सामान

त्वचा का बना कुल जहान

टीवी रात-दिन दिखलाता है जिसके चलते-फिरते दृश्य

त्वचा पर न्योछावर सब कुछ

कई तरह के लेप उबटन झाग तौलिए आसमान से गिरते हुए

कमनीय त्वचा का आदान-प्रदान करते दिखते हैं स्त्री-पुरुष

प्रेम की एक परत का नाम है प्रेम

अध्यात्म की खाल जैसा अध्यात्म

सतह ही सतह फैली है हर जगह उस पर नए-नए चमत्कार

एक सुंदर सतह के नीचे आसानी से छुप जाता है एक कुरूप विचार

एक दिव्य त्वचा पहनकर प्रकट होता है मुकुटधारी भगवान

 

यह कोई और ही त्वचा है

जो जीती-जागती-धड़कती देह में से नहीं उपजती उसकी सुंदरता बनकर

जो सांस नहीं लेती जिसके रोंये नहीं सिहरते

जिसे पीड़ा नहीं महसूस होती

यह कबीर की मुई खाल नहीं है

जिसकी गहरी सांस लोहे को भस्म कर देती है

यह कोई और ही त्वचा है जो कोई पुकार नहीं सुनती

जिसे छूने पर रक्त नहीं उछलता हृदय नहीं पसीजता

सतह पर पड़ा रहता है दुख

झुर्रियों के समुद्र में विलीन होती जाती मोटी खाल की एक नदी

अपने साथ बहाकर ले जाती है सुगंधमय प्रसाधन तौलिए उबटन

यही है हमारा त्वचामय समय यही है हमारा निवास

इसी पर नाचते हैं हमारे विचार

देखो एक रोगशोकजरामरणविहीन कविता की दशा

वह यहां त्वचा की तरह सूखती हुई पड़ी है ।

 

*************

 

( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )

 

***

 

कवि का फोटो इरफ़ान के ब्लॉग से साभार

 


Responses

  1. मंगलेश जी के साथ एक शाम शराब पी थी..(तब मैं पीता था).. उनको याद नहीं होगा.. मुझे याद है.. कि खुसरो निज़ाम पर बल बल.. गाते हुये उन्हे देखना कितना सुखद था..
    ये कविता की सूखी त्वचा के स्पर्श से कहीं ज़्यादः सुखद…

  2. अच्छा लगा इसे पढ़ना। सब कुछ त्वचा के ही चिंता में डूबा है!

  3. बहुत सुंदर रचना है। अंतिम पंक्तियों में बहुत ही भावुक चित्रण है।


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