मनमोहन की एक कविता
बरखास्त
फूल के खिलने का डर है
सो पहले फूल का खिलना बरखास्त
फिर फूल बरखास्त
हवा के चलने का डर है
सो हवा का चलना बरखास्त
फिर हवा बरखास्त
डर है पानी के बहने का
सीधी-सी बात
पानी का बहना बरखास्त
न काबू आए तो पानी बरखास्त
सवाल उठने का सवाल ही नही
सवाल का उठना बरखास्त
सवाल उठाने वाला बरखास्त
यानी सवाल बरखास्त
असहमति कोई है तो असहमति बरखास्त
असहमत बरखास्त
और फिर सभा बरखास्त
जनता का डर
तो पूरी जनता बरखास्त
किले में बंद हथियारबंद खौफ़जदा
बौना तानाशाह चिल्लाता है
बरखास्त बरखास्त
रातों को जगता है चिल्लाता है
खुशबू को गिरफ़्तार करो
उड़ते पंछी को गोली मारो ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
खुश्बू रहे, थोड़ी बदबू के साथ भी नहीं तो खुश्बू का मोल ही क्या बचेगा.
हवा चले, पानी बहे, सवाल उठे और जबाब भी मिलें, सहमति और असहमति दोंनों साथ बैठकर चाय पियें.
क्या एसा नहीं हो सकता?
By: dhurvirodhi on जून 15, 2007
at 2:42 अपराह्न
धुरविरोधी ने उठाया सवाल जो है विरोध,
सवाल बरखास्त, विरोध बरखास्त
यानि धुरविरोधी बरखास्त
वैसा हो नहीं सकता इसलिए ऐसा होगा
By: masijeevi on जून 15, 2007
at 2:50 अपराह्न
ज्ञानपरक कविता…आत्ममंथन के लिए सचमुच जरुरी है…।
By: divyabh on जून 15, 2007
at 3:03 अपराह्न
सही समय पर सही कविता । अच्छा लगा । अब टिप्पणी बरखास्त ।
By: yunus on जून 15, 2007
at 3:20 अपराह्न
शानदार कविता.. गरम लोहे पर चोट..
By: अभय तिवारी on जून 15, 2007
at 3:46 अपराह्न
क्या बात है.मौके पर कही गई बात लोगों के दिल तक पहुंचती है.ये सारी बातें एक समाज मे पनपतीं हैं. सो…ये समाज भी बर्खास्त. बचा रह गया शून्य बटा सन्नाटा… किसी के मिमियाने की आवाज़ आ रही है देखूं या बर्खास्त करुं…..
By: vimal verma on जून 15, 2007
at 4:08 अपराह्न
बर्खास्त तो केवल भय होना चाहिये. विक्तोर फ्रेंकल नात्सी कैम्प में भी सबसे स्वतंत्र व्यक्ति थे. जो कविता भय और नैराश्य बढ़ाये वह बर्खास्त होनी चाहिये.
By: Gyandutt Pandey on जून 15, 2007
at 10:30 अपराह्न
प्रियकंर जी बातों -२ मे तीर बहुत दूर तक आप लगा गये और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी करते हुये.
By: DR PRABHAT TANDON on जून 15, 2007
at 11:22 अपराह्न
बड़ी बेहतरीन कविता और कुछ अभी के माहौल के साथ सामन्जस्य बैठाने की कोशिश करती. 🙂
By: समीर लाल on जून 16, 2007
at 1:16 पूर्वाह्न
हार्दिक शुभकामना । मनमोहन और आपको साधुवाद के साथ इस कविता चिट्ठे पर भवानीबाबू की याद
निर्भय मन
बुद्धि को तेजस्वी बनाने का
एक ही रास्ता है
कि हम हठपूर्वक कुछ तय न करें
खुला रखें अपना मन
मन में विचार हवा की तरह
आयें – जायें
तुफान उठायें
हम भय न करें
निर्भय मन द्विविधा का लय कर देता है
बिना किसी दुराग्रह के
पथ तय कर लेता है
भवानीप्रसाद मिश्र
By: अफ़लातून on जून 16, 2007
at 6:47 पूर्वाह्न
“”..जो कविता भय और नैराश्य बढ़ाये वह बर्खास्त होनी चाहिये””..
समाज, समय व जनविरोधी ऐसी टिप्पणी बर्खास्त!
By: प्रमोद सिंह on जून 16, 2007
at 9:02 पूर्वाह्न
अचानक आज पुरानी पोस्ट देखते हुए मनमोहन की कविता यहां मिली। बहुत अच्छा लगा। मनमोहन वरिष्ठ कवि हैं पर हमेशा इस चकाचौंध और रेटिंग से दूर चुपचाप सामाजिक रूपांतरण के काम में लगे रहने वाले। यह कविता मैंने उनसे पहले फोन पर सुनी थी। उनकी कुछ कविताएं मैंने अपने ब्लाग पर दे रखी हैं। पुरानी कई पोस्ट आपको देखनी पड़ेंगी। उन पर जल्द ही असद जैदी की एक टिप्पणी दूंगा। देखिएगा
By: धीरेश सैनी on अगस्त 30, 2008
at 2:13 अपराह्न