Posted by: PRIYANKAR | जून 15, 2007

बरखास्त

मनमोहन की एक कविता

 

 

बरखास्त

 

फूल के खिलने का डर है

सो पहले फूल का खिलना बरखास्त

फिर फूल बरखास्त

 

हवा के चलने का डर है

सो हवा का चलना बरखास्त

फिर हवा बरखास्त

 

डर है पानी के बहने का

सीधी-सी बात

पानी का बहना बरखास्त

न काबू आए तो पानी बरखास्त

 

सवाल उठने का सवाल ही नही

सवाल का उठना बरखास्त

सवाल उठाने वाला बरखास्त

यानी सवाल बरखास्त

 

असहमति कोई है तो असहमति बरखास्त

असहमत बरखास्त

और फिर सभा बरखास्त

जनता का डर

तो पूरी जनता बरखास्त

 

किले में बंद हथियारबंद खौफ़जदा

बौना तानाशाह चिल्लाता है

बरखास्त  बरखास्त

रातों को जगता है चिल्लाता है

खुशबू को गिरफ़्तार करो

उड़ते पंछी को गोली मारो ।

 

*************

 

( समकालीन सृजन के  ‘कविता इस समय’  अंक से साभार )


प्रतिक्रियाएँ

  1. खुश्बू रहे, थोड़ी बदबू के साथ भी नहीं तो खुश्बू का मोल ही क्या बचेगा.
    हवा चले, पानी बहे, सवाल उठे और जबाब भी मिलें, सहमति और असहमति दोंनों साथ बैठकर चाय पियें.
    क्या एसा नहीं हो सकता?

  2. धुरविरोधी ने उठाया सवाल जो है विरोध,
    सवाल बरखास्‍त, विरोध बरखास्‍त
    यानि धुरविरोधी बरखास्‍त

    वैसा हो नहीं सकता इसलिए ऐसा होगा

  3. ज्ञानपरक कविता…आत्ममंथन के लिए सचमुच जरुरी है…।

  4. सही समय पर सही कविता । अच्‍छा लगा । अब टिप्‍पणी बरखास्‍त ।

  5. शानदार कविता.. गरम लोहे पर चोट..

  6. क्या बात है.मौके पर कही गई बात लोगों के दिल तक पहुंचती है.ये सारी बातें एक समाज मे पनपतीं हैं. सो…ये समाज भी बर्खास्त. बचा रह गया शून्य बटा सन्नाटा… किसी के मिमियाने की आवाज़ आ रही है देखूं या बर्खास्त करुं…..

  7. बर्खास्त तो केवल भय होना चाहिये. विक्तोर फ्रेंकल नात्सी कैम्प में भी सबसे स्वतंत्र व्यक्ति थे. जो कविता भय और नैराश्य बढ़ाये वह बर्खास्त होनी चाहिये.

  8. प्रियकंर जी बातों -२ मे तीर बहुत दूर तक आप लगा गये और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी करते हुये.

  9. बड़ी बेहतरीन कविता और कुछ अभी के माहौल के साथ सामन्जस्य बैठाने की कोशिश करती. 🙂

  10. हार्दिक शुभकामना । मनमोहन और आपको साधुवाद के साथ इस कविता चिट्ठे पर भवानीबाबू की याद
    निर्भय मन
    बुद्धि को तेजस्वी बनाने का
    एक ही रास्ता है
    कि हम हठपूर्वक कुछ तय न करें
    खुला रखें अपना मन

    मन में विचार हवा की तरह
    आयें – जायें
    तुफान उठायें
    हम भय न करें

    निर्भय मन द्विविधा का लय कर देता है
    बिना किसी दुराग्रह के
    पथ तय कर लेता है
    भवानीप्रसाद मिश्र

  11. “”..जो कविता भय और नैराश्य बढ़ाये वह बर्खास्त होनी चाहिये””..
    समाज, समय व जनविरोधी ऐसी टिप्‍पणी बर्खास्‍त!

  12. अचानक आज पुरानी पोस्ट देखते हुए मनमोहन की कविता यहां मिली। बहुत अच्छा लगा। मनमोहन वरिष्ठ कवि हैं पर हमेशा इस चकाचौंध और रेटिंग से दूर चुपचाप सामाजिक रूपांतरण के काम में लगे रहने वाले। यह कविता मैंने उनसे पहले फोन पर सुनी थी। उनकी कुछ कविताएं मैंने अपने ब्लाग पर दे रखी हैं। पुरानी कई पोस्ट आपको देखनी पड़ेंगी। उन पर जल्द ही असद जैदी की एक टिप्पणी दूंगा। देखिएगा


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