Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 14, 2007

औरतों की जेब क्यों नहीं होती

 

राग तैलंग की एक कविता

 

औरतों की जेब क्यों नहीं होती

 

यह कुसूर सिर्फ़ उनके पहनावे से जुड़ा हुआ नहीं है

न ही इतना भर कहने से काम चलने वाला कि क्योंकि वे औरतें हैं

जवाब भले दिखता किसी के पास न हो मगर

इस बारे में सोचना ज़रूरी है

 

जल्दी सोचो!

क्या किया जाए

दिनों-दिन बदलते ज़माने की तेज़ रफ़्तार के दौर में

जब पेन मोबाइल आई-कार्ड  लाइसेंस  और पर्स रखने की ज़रूरत आ पड़ी है

 

जब-जब रोज़मर्रा के काम निपटाने

वे घरों से बाहर निकलने लगी हैं तब

अलस्सुबह छोड़ने आती हैं बस स्टॉप पर बच्चों को

तालीम के हथियार की धार तेज़ करने के वास्ते तब

जाना चाहती हैं सजकर बाहर

संवरती हुई दुनिया को देखने के लिए तब

 

उम्मीद की जाती है उनसे कि

घर के तमाम कामों को समय पर समेटने के बाद भी

दिखें बाहर के मोर्चे पर भी बदस्तूर तैनात

वह भी बिना जेब में हाथ डाले

 

और ऐसे वक्त में भी उनसे वही पुरातन उम्मीद कि

वे खोंसे रहें चाबियां या तो कटीली कमर में

या फ़िर वक्षों के बीचों-बीच फंसाकर

निभाती चलती रहें पुरखों के जमाने से चले आ रहे जंग लगे दस्तूर

 

दिल पे हाथ रखो और बताओ

ऐसे में क्या यह सिर्फ़ आधुनिक दर्जियों और

जेबकतरों का दायित्व है कि वे सोचें कि

औरतों की जेब क्यों नहीं होती ?

या फिर इस बारे में

हमें भी कुछ करने की ज़रूरत है ।

 

********

 

( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )

 


प्रतिक्रियाएँ

  1. अब क्या बतायें – तैलंगजी न दर्जी हैं न जेबकतरा. जब वे सोच रहे हैं तो महत्वपूर्ण बात होगी ही.
    कोई व्यक्ति किस्सा बता रहे थे कि एक बार टाटा की कार कहीं अटक गयी और उन्हे टैक्सी से जाना पड़ा. जब उतरकर उन्होने जेब में हाथ डाला तो पैसे ही नहीं थे. टैक्सी वाले ने हंस कर कहा कि इस यात्रा को मेरी तरफ से राइड मान लीजिये!
    शायद जेब नहीं जेब पर किसका नियंत्रण है, यह महत्वपूर्ण है.

  2. एक बात तो कवि महोदय भी मानेंगे- सिर्फ जेब से काम नहीं चल सकता. उन्हें पूरा का पूरा बैग चाहिए होता है. किसी पहनावे में बैग तो पियरे कार्डिन ही बना सकते हैं. पर उसे रॅम्प पर ही पहना जा सकता है

  3. एकदम सही कविता ! यह प्रश्न तो हमारे मस्तिष्क को भी सताता रहता है । यह प्रश्न उतना पुराना भी नहीं है जितना आप सोच रहे हैं । गाँव की स्त्रियाँ अभी कुछ वर्ष पहले तक साड़ी एक कुर्तेनुमे ब्लाउज के साथ पहनती थीं जिसमें जेब होती थी । पुरुष कुर्तों सी ही बड़ी बड़ी जेब ! चूड़ीदार पजामे के साथ भी जेब वाले कुर्ते चलाये जा सकते थे । जीन्स, ट्राउजर्स आदि में तो खैर जेब रहती ही हैं । अब यदि रैम्प या सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाली स्त्रियों को जेब की कमी सताए तभी हम जैसी साधारण स्त्रियों का भी उद्धार हो सकता है ।
    घुघूती बासूती

    • auraton ki jeb nahi hoti…honee bhee nahee chahiye.. jab unake paas ek ghar banaane basaane aur chalaane ki taaqat hoti hai toh unhe bhalaa chhoti see jeb ki zaroorat bhi kyaa hai

  4. हा हा, बहुत सही कविता. जेब क्यों चाहिये? झोला टाईप आदमी तो साथ होता ही है हरदम.

  5. कविता बहुत अच्छी लगी। अगर कोई महिला और समीरजी बुरा न माने तो हम कहना चाहेंगे कि समीर जी की टिप्पणी में ‘झोला टाइप’ की जगह ‘बोरा टाइप’ पढ़ा जाये।

  6. हा हा!! 🙂 बुरा मान गये, अब मनाओ!!

  7. yah bhi ek swaal udhata hai ki jeb me kisake diye paise ho chahiye, aapana ya dusare ka jeb ka.agar dusare ke jeb ke chahiye to isako issue kyo banaya jaye agar khud ke to isake liye aatmnirbhar hona jaruri hai to jeb ki ladaaee hi nahi hogi.


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