(यात्रा-साहित्य पर केन्द्रित समकालीन सृजन के अंक ‘यात्राओं का जिक्र’ के प्रकाशन के बाद उर्दू शे’र-ओ-शायरी पर केन्द्रित संकलन/कोश पर काम शुरू किया है . इसी क्रम में प्रस्तुत है एक शे’र :
शायद कोई …..
शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है ।
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बढ़िया शेर छांट के लाये हैं आप. शुक्रिया.
By: अशोक पांडे on जुलाई 1, 2008
at 8:10 पूर्वाह्न
ओह !
By: प्रत्यक्षा on जुलाई 1, 2008
at 8:23 पूर्वाह्न
खूब
By: संजय बेंगाणी on जुलाई 1, 2008
at 9:05 पूर्वाह्न
अब तुलनात्मक रूप से देखें तो हमारे अन्दर ओरी (बारिश का पानी जो छत से परनाले के रूप में आता है) बहती है!
By: gyanpandey on जुलाई 1, 2008
at 11:41 पूर्वाह्न
बहुत बढिया , सधा हुआ शेर है !
By: - लावण्या on जुलाई 1, 2008
at 1:41 अपराह्न
बाहर तो बारिश हो ही रही थी, आपने अंदर भी करा दी। बहुत खूब।
By: अशोक पाण्डेय on जुलाई 1, 2008
at 2:07 अपराह्न
इस शेर का जवाब
बारिशें छत पर खुली जगहों पर होती हैं लेकिन
गम वो सावन है जो बंद कमरों के अंदर बरसे ।।
By: yunus on जुलाई 1, 2008
at 2:30 अपराह्न
चलिए फराज़ के कुछ अशआर मेरी जानिब से…
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
दिल भी माना नहीं कि तुझसे कहें
आज तक अपनी बेकली का सबब
खुद भी जाना नहीं कि तुझसे कहें
By: मनीष on जुलाई 1, 2008
at 5:05 अपराह्न
अहमद फ़राज़ साहब के एक शेर में समा बांध दिया. वाह!!
By: समीर लाल on जुलाई 1, 2008
at 5:06 अपराह्न
एक शेर पूरी बारिश पर भारी है। इधर अनवरत देखिए। पुरुषोत्तम यकीन की पूरी गजल है वहाँ।
By: दिनेशराय द्विवेदी on जुलाई 1, 2008
at 5:25 अपराह्न
wah kya kehne
शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है ।
mubarak ho- jindgi ka yahi sachcha falsafa hota hai
khawahish/aarzoo/hasrat/ummeed
By: Aafaque on जुलाई 4, 2008
at 9:29 पूर्वाह्न
abhi to khushq hai mausam, jo baarish ho to sochenge
hamein apne armaanon ko kis mitti mein bona hai.
By: Harsha Prasad on जुलाई 7, 2008
at 2:37 अपराह्न
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at 1:51 पूर्वाह्न