गगन गिल की एक कविता
एक दिन सब
सब जान लेगी वह
तुम्हारे बारे में
अपने तप से एक दिन
सुन लेगी सब बातें
तुम्हारे चीवर और
देह के बीच
पता चल जाएगा उसे
तुरंत
किस देश की
कौन सड़क पर
चलते हुए
अभी-अभी कांपा था
तुम्हारा पांव
कितने बजे थे घड़ी में उस दिन
जब चला था एक
बुलबुला कहीं से
और फूट गया था
आकर
तुम्हारे हृदय में
कितने अंश का कोण
बन रहा था
जमीन पर
तुम्हारे हाथ की छाया का
जब आईने के सामने खड़े
धकेला था पीछे
तुमने पीड़ा की लहर को
उससे कुछ भी नहीं छिपेगा
हालांकि
वह कहीं नहीं होगी
सब मालूम होगा उसे
नींद आने के कितने क्षण बाद
तुम डूब जाते हो
फिर आते हो सतह पर
मांगते बुद्ध से शरण
नीम-बेहोशी में
कोई उसे
बताएगा नहीं
पूछने नहीं जाएगी
वह किसी से
उसकी जान का आतिशी कांच
जल रहा है जो
धू-धू
इतने दिनों से
साफ़ दीखता होगा
उसमें
सब ।
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( नंदकिशोर नवल और संजय शांडिल्य द्वारा सम्पादित कविताओं के संकलन ‘संधि-वेला’ से साभार )
सुंदर ….बेहद सुंदर
By: Dr Anurag on जुलाई 15, 2008
at 7:41 पूर्वाह्न
vaah!!
By: parul on जुलाई 15, 2008
at 9:27 पूर्वाह्न
बेहद सुन्दर रचना। बधाई स्वीकारें।
By: ritu bansal on जुलाई 15, 2008
at 11:08 पूर्वाह्न
बहुत खूब
By: ranju on जुलाई 15, 2008
at 12:21 अपराह्न
Aapke blog par aana achha laga.
By: योगेन्द्र कृष्णा on जुलाई 15, 2008
at 12:37 अपराह्न
इसे पढ़वाने के लिए शुक्रिया ….बेहद पठनीय रचना है…….
By: Dr Anurag on जुलाई 15, 2008
at 2:22 अपराह्न
कोई यह बताये कि अपने व्यक्तित्व का एक हिस्सा सबसे छिपा कर रखने का तरीका क्या है।
वह जो किसी भी तप से न जान पाये वह?!
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 15, 2008
at 2:53 अपराह्न
सुन्दर रचना।
By: Sameer Lal on जुलाई 15, 2008
at 3:12 अपराह्न
priyankar ji namaskar bhai kaise hain aap .ye kavita bahut acchi lagi. badhai svikaar kren.
By: someshwar pandeya on जुलाई 16, 2008
at 5:14 पूर्वाह्न
bahut hi sundar rachna.man ko baandh liya shabd aur bhaav ne.aabhaar.
By: ranjana singh on अगस्त 9, 2008
at 8:41 पूर्वाह्न