मुहम्मद अल्वी की एक और गज़ल
भाई मिरे घर साथ न ले
जंगल में डर साथ न ले
भीगी आंखें छोड़ यहीं !
देख ये मंजर साथ न ले
यादें पत्थर होती हैं
मूरख पत्थर साथ न ले
नींद यहीं रह जानी है
तकिया चादर साथ न ले
चुल्लू भर पानी के लिए
सात समंदर साथ न ले
एक अकेला भाग निकल
सारा लश्कर साथ न ले
साथ खुदा को रख ’अल्वी’
मस्जिद मिम्बर साथ न ले ।
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(वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर द्वारा प्रकाशित संकलन से साभार)
चुल्लू भर पानी के लिए
सात समंदर साथ न ले
आपके कारण इतनी अच्छी गज़ल पढ़ने मिल रही है ….बहुत आभार
By: Reetesh Gupta on अप्रैल 8, 2009
at 12:30 अपराह्न
साथ खुदा को रख ’अल्वी’
मस्जिद मिम्बर साथ न ले ।
पहले इसे पढ़ा हुआ है.पर छोटी बहर की ये गजल यहाँ देख अच्छा लगा
By: Dr Anurag on अप्रैल 8, 2009
at 2:10 अपराह्न
सुंदर कविता, मोह त्याग का मार्ग दिखाती।
By: दिनेशराय द्विवेदी on अप्रैल 8, 2009
at 2:27 अपराह्न
इक इक लाइन में वजन है. सुन्दर.
By: कौतुक on अप्रैल 8, 2009
at 4:27 अपराह्न
बहुत ही बढिया लिखा … बधाई।
By: संगीता पुरी on अप्रैल 9, 2009
at 12:53 पूर्वाह्न
अच्छी लेखनी हे / पड़कर बहुत खुशी हुई / आप जो हिन्दी मे टाइप करने केलिए कौनसी टूल यूज़ करते हे…? रीसेंट्ली मे यूज़र फ्रेंड्ली इंडियन लॅंग्वेज टाइपिंग टूल केलिए सर्च कर रहा ता, तो मूज़े मिला ” क्विलपॅड ” / आप भी ” क्विलपॅड ” यूज़ करते हे क्या…? http://www.quillpad.in
By: santhosh on अप्रैल 9, 2009
at 5:22 पूर्वाह्न
rehane do ghavo ko yu hi..
uthane toh dard reh reh kar
mat pocho ansuo ko behane se
behane do ansso dhara ban kar .
yahi hausala dega tumko ladane ka,
tab shayad kahi phir se
tum chal sakoge tan kar .
By: manish on अप्रैल 11, 2009
at 8:36 अपराह्न