Posted by: PRIYANKAR | जुलाई 17, 2008

एक कविता खुशी की हो, एक दुख की…

पुरबिया फुटानीबाज प्रमोद सिंह की एक कविता

 

 एक मामूली कविता की किताब

 

एक कविता खुशी की हो, धुली लहरीली साइकिल पर चढ़कर आए, जंगले के लोहे में धंसे बच्‍चे का चेहरा मुस्‍कराहट में भर जाए.

खुरपी, मटकी, संड़सी, असबेस्‍टस, बेलचा, हेलमेट, बाजा, बंसखट पर हो एक कविता.

एक गोंइठा, देगची, परात, अदहन, राख में पकते आलू और भटा की हो.

खपड़े पर पड़पड़ाती बारिश और सीली चदरी में मुंह लुकाये की हो गीली एक कविता.

एक कविता खाना ठेलकर दूर कर देने, उबले व उबलते रहने, मां से जिरह की लम्‍बी दोपहर में बार-बार टूटने और मुड़ने की हो.

सफ़र की हो तीन कविताएं, ग़ुमनाम शाम की फीक़ी पीली रोशनी में टकराते फतिंगों की बेमतलब बेचैनी और व्‍यर्थता में बीतते जीवन की अकुलाहट की एक कविता हो.

एक मुंहअंधेरे आसमान की हल्‍के, फाहे की-सी नीलाई में नहाये  सड़क पर भागने की, थकने की हो.

एक असंभव सपने की हो, किसी गांव-सड़क के पेपरवाले की दुकान पर चौंककर ठहर जाने, ‘दिनमान’ उठा लेने, पढ़ने, जगने और जगे रहने की हो.

जंगल में उतरने-खोने के संगीत की, और जंगली रात से निकल आने की हो एक कविता.

एक सागर की गहराई की, एक पेड़ की ऊंचाई की हो.

एक कविता सुख की हो, भागकर गाड़ी पर चढ़ लेने की, रतजगे की ; मुंह को किताब के हल्‍के आंचल से तोपे हंसने और हंस-हंसकर नशे में बहने की हो.

निर्दोष नवजात बच्‍चे की हो, करुणा की हो एक कविता.

हाथी से गिरकर चोट खाने और घर जलाने की, प्‍यार की हो एक कविता.

हिन्‍दी की हो, एक कविता दु:ख की हो .

 

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प्रतिक्रियाएँ

  1. मुझे नहीं पता ये प्रमोद सिंह कौन हैं मगर कविता अद्बुत लिखी है। बार-बार पढ़ रहा हूँ। जाने क्यों यह कविता पढ़कर मंगलेश डबराल जी की कविताओं की याद हो आई। इतनी बेहतरीन कविता सामने लाने के लिये धन्यवाद।
    शुभम
    महेन

  2. अद्भुत कविता है!

    अद्भुत इसलिए भी कि ‘फुटानीबाज’ कवि की है. वैसे, मेरा मानना है कि कवि ‘फुटानीबाज’ नहीं हो सकता.
    और ‘फुटानीबाज’ कवि नहीं हो सकता.

  3. मुझे प्रेमीजीव पसंद हैं . पर पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से चिलमन के पीछे से असदप्रेमी-प्रमोदप्रेमी आ रहे हैं, मुझे किसी अ+सद+प्रेमी(द पर हलन्त पढ़ें,मुझसे लग नहीं रही है) के आने की आहट मिल रही है .

    काश! यह मेरा वहम हो और ऐसा न हो .

  4. प्रिय महेन,
    हिंदी ब्लॉग-जगत में रहकर प्रमोद सिंह उर्फ़ अज़दक को नहीं जाना तो क्या जाना .

    तुरन्त http://azdak.blogspot.com/ पर जाइए और उन्हें जानिए .

  5. बहुत सुन्दर

  6. सिर पर चढ़ाने, चढ़ाये रहने का शुक्रिया, प्रियंकर.
    हमारा प्रेम लेनेवाले वैसे सही कह रहे हैं फुटानीबाज कवि नहीं हो सकता.
    कवि क्‍या शायद बाज भी नहीं हो सकता, इसीलिए तो मामूलीपने के शब्‍द बीन रहे हैं.
    जिज्ञासावश कुछ बंधुवर इसे सुनना भी चाहें तो एक लिंक यहां चेंप रहा हूं. सुनने के लिये यहां खटकायें.

  7. प्रमोद सिंह जी सही (और विलक्षण) कह रहे हैं – कविता में भी और टिप्पणी में भी।

  8. अरे, इतनी बेहतरीन कविता के रचयिता और फुटानीबाज–न न, कोई और होगा. शैली तो अपने अजदकी भाई टाईप है. 🙂

  9. बहुत अच्छी कविता …बधाई प्रमोद जी

  10. सरहनीय प्रयास, सफल प्रयोग!

  11. प्रमोद भाई का लिखा हमेशा से अद्`भुत भावोँ को दे जाता है फिर उन्हेँ स स्वर सुनना तो बस – क्या कहेँ !
    धन्यवाद प्रियँकर भाई –

  12. उनके ब्लॉग में मेरी सबसे पसंदीदा कृतियों में से के यही है – अद्भुत है – उनके ब्लॉग में “दिन बीतते हैं” और “नींद में रात” में भी ऐसा ही कुछ है – उनसे भी कह चुका हूँ – आप बड़ा अच्छा पढा रहे हैं – साभार – मनीष


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