Posted by: PRIYANKAR | जुलाई 24, 2009

पहली पेंशन

अनामिका की एक कविता

 

 

पहली पेंशन

 

श्रीमती कार्लेकर
अपनी पहली पेंशन लेकर
जब घर लौटीं–
सारी निलम्बित इच्छाएँ
अपना दावा पेश करने लगीं ।

 

जहाँ जो भी टोकरी उठाई
उसके नीचे छोटी चुहियों-सी
दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएँ !

 

श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं
क्या-क्या ख़रीदें, किससे कैसे निबटें !
सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई
झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर

 
चूहेदानी में इच्छाएँ फँसाईं
(हुलर-मुलर सारी इच्छाएँ)
और कहा कार्लेकर साहब से–
“चलो ज़रा, गंगा नहा आएँ !”

 

****

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Responses

  1. bahut hi sundar abhiwyakti hai ……..sahi ichchhaye aisi hi hoti hai

  2. सही है मगर जिन्हें पहली पेँश्न भी नहीं मिलती वो तो गंगा नहाने भी नहीं जा सकते आभार सुन्दर अभिव्यक्ति

  3. श्रीमती कार्लेकर बुद्धिमान हैं। इच्छाओं की कौड़ियां गंगा में बहाने पर ही हल्का होता है मन!


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