अनामिका की एक कविता
पहली पेंशन
श्रीमती कार्लेकर
अपनी पहली पेंशन लेकर
जब घर लौटीं–
सारी निलम्बित इच्छाएँ
अपना दावा पेश करने लगीं ।
जहाँ जो भी टोकरी उठाई
उसके नीचे छोटी चुहियों-सी
दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएँ !
श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं
क्या-क्या ख़रीदें, किससे कैसे निबटें !
सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई
झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर
चूहेदानी में इच्छाएँ फँसाईं
(हुलर-मुलर सारी इच्छाएँ)
और कहा कार्लेकर साहब से–
“चलो ज़रा, गंगा नहा आएँ !”
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bahut hi sundar abhiwyakti hai ……..sahi ichchhaye aisi hi hoti hai
By: om arya on जुलाई 24, 2009
at 11:33 पूर्वाह्न
सही है मगर जिन्हें पहली पेँश्न भी नहीं मिलती वो तो गंगा नहाने भी नहीं जा सकते आभार सुन्दर अभिव्यक्ति
By: nirmla on जुलाई 26, 2009
at 6:10 पूर्वाह्न
श्रीमती कार्लेकर बुद्धिमान हैं। इच्छाओं की कौड़ियां गंगा में बहाने पर ही हल्का होता है मन!
By: Gyan Dutt Pandey on जुलाई 26, 2009
at 7:37 पूर्वाह्न