विष्णुचंद्र शर्मा की एक कविता
सभ्यता का ज़हर
सुबह की
भाषा में
कोई प्रदूषण नहीं है
सुबह की
हवा
पेड़ों को
बजा रही है
सुबह की
भाषा में
ताज़े पेड़
पहाड़ों से
तराना
सीख रहे हैं
सुबह यहां
कोकाकोला की
भाषा में
ज़हर नहीं आया है
सभ्यता की मरी
हुई भाषा का फिर भी
ज़हर
फ़ैल रहा है
दिल में
दिमाग में ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
बहुत सुंदर रचना है.पढ़वाने के लिये बहुत धन्यवाद.
By: समीर लाल on अप्रैल 23, 2007
at 1:22 अपराह्न
क्या बात है ।
By: अफ़लातून on अप्रैल 23, 2007
at 5:42 अपराह्न
सारी ही रचना बहुत सुंदर है। सच कहा है अंतिम पंक्तियों में!
सभ्यता की मरी
हुई भाषा का फिर भी
ज़हर
फ़ैल रहा है
दिल में
दिमाग में ।
By: महावीर on अप्रैल 28, 2007
at 6:08 अपराह्न