Posted by: PRIYANKAR | अप्रैल 23, 2007

सभ्यता का ज़हर

विष्णुचंद्र शर्मा की एक कविता

 

  

सभ्यता का ज़हर

 

सुबह की

भाषा में

कोई प्रदूषण नहीं है

 

सुबह की

हवा

पेड़ों को

बजा रही है

 

सुबह की

भाषा में

ताज़े पेड़

पहाड़ों से

तराना

सीख रहे हैं

 

सुबह यहां

कोकाकोला की

भाषा में

ज़हर नहीं आया है

 

सभ्यता की मरी

हुई भाषा का फिर भी

ज़हर

फ़ैल रहा है

दिल में

दिमाग में ।

 

*************

 

( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )


प्रतिक्रियाएँ

  1. बहुत सुंदर रचना है.पढ़वाने के लिये बहुत धन्यवाद.

  2. क्या बात है ।

  3. सारी ही रचना बहुत सुंदर है। सच कहा है अंतिम पंक्तियों में!

    सभ्यता की मरी

    हुई भाषा का फिर भी

    ज़हर

    फ़ैल रहा है

    दिल में

    दिमाग में ।


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