Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 24, 2007

न सही कविता


ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’

 

न सही कविता

 

अगर यह फतवा सही है

कि

धरती पर

न कहीं पानी है

न कहीं प्यार

तो

कैसे लहरा रहे हैं

सात-सात सागर

 

कैसे बचाये रखते हैं

भूख-प्यास के बावजूद

आंखों की चमक

माताओं के इर्द-गिर्द बच्चे ?

 

न किसी की दया है

न कोई चमत्कार

कि

आकाश की छाया में

सुरक्षित है

जीवन की धरोहर

 

रीत नहीं गया

आज भी प्यार का कोष

खुशी-खुशी बांट देते हैं लोग

हिस्से की रोटी

और बदन का खून

ज़रूरतमंद होठों पर

दूधिया मुस्कान के लिये

 

बड़ी विराट है

आकाश की छाया

बेफ़िक्र

उगते रहते हैं तारे

खिलते रहते हैं फूल

गाछ-गाछ

फूटते रहते हैं कंछे

 

हां

थोड़ा अधिक गड़बड़ा गये हैं

कुछ अधिक चालाक

कुछ अधिक बालिग लोग

उनकी दानिशमंद आंखों को

रास नहीं आती

पानी और प्यार की गोद में किलकती दुनिया

 

आदमी से छीन लेने के लिये

तारों की छांव

और फूलों का पड़ोस

मुल्तवी कर रहे हैं वे

तमाम अच्छे काम

मसलन

बच्चों के साथ मुस्कुराना

कंछों के साथ हरियाना

 

गझिन बादलों में उगे इन्द्रधनुष को

सराहती आंखों में

तेजाब उंड़ेलते दानिशमंदों के खिलाफ़

मेरे प्राणों में उठती पुकार न सही कविता

धरती के कण्ठ की गुहार ही सही

इसे सुन तो लो

रावण के इलाके में

सीता का ठिकाना ढूंढते लोगो !

 

*********

 

( काव्य संकलन ‘खंडहर होते शहर के अंधेरे में’ से साभार )

********* 

कवि का फोटो इरफ़ान के ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई से साभार

 


Responses

  1. प्रियंकर जी,
    बहुत अच्छी प्रस्तुति.मन प्रसन्न हो गया.

    धन्यवाद.

  2. वाह भाई!! क्या बेहतरीन कविता निकाल कर लाये है. अति आनन्द की प्राप्ति हुई.आभार.


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