देवव्रत जोशी का एक गीत/नवगीत
रजधानी की धज
भूपालों के नगर गए हम
हमने सुने राग दरबारी ।
जाजम पर हमको बैठाया
सारा कर्ज़ माफ़ फ़रमाया
फिर वे लगे नाचने खुद ही —
अपनी छवि होते बलिहारी ।
देखे सत्ता के गलियारे
कागज के मुख होते कारे
जन तिनके-सा उड़ता दीखा
रजधानी की धज ही न्यारी ।
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( वागर्थ के जनवरी २००२ अंक से साभार )
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