भगवत रावत की एक कविता
मेधा पाटकर
करुणा और मनुष्यता की ज़मीन के
जिस टुकड़े पर तुम आज़ भी अपने पांव जमाए
खड़ी हुई हो अविचलित
वह तो कब का डूब में आ चुका है
मेधा पाटकर
रंगे सियारों की प्रचलित पुरानी कहानी में
कभी न कभी पकड़ा जरूर जाता था
रंगा सियार
पर अब बदली हुई पटकथा में
उसी की होती है जीत
उसी का होता है जय-जयकार
मेधा पाटकर
तुम अंततः जिसे बचाना चाहती हो
जीवन दे कर भी जिसे ज़िंदा रखना चाहती हो
तुम भी तो जानती हो कि वह न्याय
कब का दोमुंही भाषा की बलि चढ़ चुका है
मेधा पाटकर
हमने देखे हैं जश्न मनाते अपराधी चेहरे
देखा है नरसंहारी चेहरों को अपनी क्रूरता पर
गर्व से खिलखिलाते
पर हार के कगार पर
एक और लड़ाई लड़ने की उम्मीद में
बुद्ध की तरह शांत भाव से मुस्कुराते हुए
सिर्फ़ तुम्हें देखा है
मेधा पाटकर
तुम्हारे तप का मज़ाक उड़ाने वाले
आदमखोर चेहरों से अश्लीलता की बू आती है
तुम देखना उन्हें तो नर्मदा भी
कभी माफ़ नहीं करेगी
मेधा पाटकर
ऐसी भी जिद क्या
अपने बारे में भी सोचो
अधेड़ हो चुकी हो बहुत धूप सही
अब जाओ किसी वातानुकूलित कमरे की
किसी ऊंची-सी कुर्सी पर बैठ कर आराम करो
मेधा पाटकर
सारी दुनिया को वैश्विक गांव बनाने की फ़िराक में
बड़ी-बड़ी कंपनियां
तुम्हें शो-केस में सजाकर रखने के लिए
कबसे मुंह बाये बैठी हैं तुम्हारे इंतज़ार में
कुछ उनकी भी सुनो
मेधा पाटकर
खोखले साबित हुए हमारे सारे शब्द
झूठी निकलीं हमारी सारी प्रतिबद्धताएं
तमाशबीनों की तरह हम दूर खड़े-खड़े
गाते रहे दुनिया बदलने के
नकली गीत
तुम्हें छोड़कर
हम सबके सिर झुके हुए हैं
मेधा पाटकर ।
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( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
भागवतजी को मेधा को छोड़े रहने,उनसे दूर रहने का दु:ख है ।लड़ाई में शामिल कविता नहीं लगी ।पढ़ाने के लिए आभार।
By: अफ़लातून on मार्च 6, 2007
at 2:49 अपराह्न
भगवत रावत की यह नई कविता अच्छी लगी .
By: varun deb mukherjee on मार्च 12, 2007
at 7:11 पूर्वाह्न
हम सबके सिर झुके हुए हैंयह कुछ-कुछ अपराधबोध ही हम लगता है आज की हमारी नियति बन गया है।
By: अनूप शुक्ला on मार्च 14, 2007
at 2:29 अपराह्न