मनीषा झा की एक कविता
सत्य को लिया सत्य की तरह
मैंने हवा को कहा हवा
तो वह नाराज़ हो गई
उसे अपना प्राण क्यों नहीं कहा
आखिर हर हवा को नहीं
भरा जा सकता अपनी सांसों में
पानी को लिया पानी की तरह ही
वह मेरे पूरे वजूद में था
दो आंखों से लेकर
असंख्य रोमछिद्रों तक
पानी मन और आत्मा में भी रहता था
खून, खून है और पानी, पानी
दोनों में अंतर है
जो अपनी जगह कायम है
मिट्टी , शरीर हो सकता है
मन और आत्मा नहीं
मन की दुनिया अलग होती है
वह विचरती है मिट्टी की दुनिया में
आत्मा की गति अलग होती है
मिट्टी की गति से
मैंने सत्य को लिया
सत्य की तरह ही
वजह यही है कभी
प्रिय न हो सकी ।
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( युवा कवयित्री मनीषा झा उत्तर बंग विश्वविद्यालय,राजा राममोहनपुर{दार्जीलिंग} में व्याख्याता हैं )
अच्छी रचना है।
By: paramjitbali on मई 16, 2007
at 1:30 अपराह्न
साधुवाद प्रेषित करे ,मनीषा जी को ।
By: अफ़लातून on मई 16, 2007
at 1:46 अपराह्न
this is an ultimate poem….!!! काफी उंची सोंच है मनीषा जी की…एक दार्शनिक अभिव्यक्ति…।
By: divyabh on मई 16, 2007
at 2:52 अपराह्न
अद्भुत रचना.
”मैंने सत्य को लिया
सत्य की तरह ही
वजह यही है कभी
प्रिय न हो सकी”
रहस्यदर्शी.. अद्भुत रचना. लेखिका मनीषा झा जी को बधाई.
By: नीरज दीवान on मई 16, 2007
at 5:24 अपराह्न
मैंने सत्य को लिया
सत्य की तरह ही
वजह यही है कभी
प्रिय न हो सकी ।
क्या बात …अति सुंदर ….धन्यवाद
By: reetesh gupta on मई 18, 2007
at 4:03 अपराह्न
बहुत सुन्दर!!
By: rachana on मई 18, 2007
at 6:05 अपराह्न
badhiyaa bahut badhiyaa…sahi he…bahut sahi
By: bhaskar on मई 24, 2007
at 5:25 पूर्वाह्न